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चकमक

chakmak

मोहन राणा

मोहन राणा

चकमक

मोहन राणा

और अधिकमोहन राणा

    हम पास होकर भी टटोलते अपने स्पर्श को

    कभी छू लेना मन भर था पर अब नहीं रही वह सीमा हमारी देह पर

    जैसे कुछ अनजान गमक उपस्थित चिरपरिचित के नेपथ्य

    सालता हुआ बहुत पास फिर भी अलभ्य आसंग वह बावला अपना-सा

    ठहरा हुआ कोई दृश्य जिसके धरातल पर समय नहीं चलता

    उसे जाना नहीं हमारी भाषा ने अभी

    खुली आँखों के सामने फिर भी दिखता नहीं कभी

    इतनी रात गए कि नया दिन भी हो गया

    बग़ल नींद में और मैं जागता कि करनी थी शुरुआत

    भूल गया तुम्हारी कही बात इस कविता से

    सहमे गलियारे में सूखती क़मीज़ मेरी एक साँस खो गई अपनी चुप्पी में

    भीगती घास पर मिट चुके हैं तुम्हारे पैरों के निशान अब

    शायद तुम भी भूल गई उन्हें, कबका जैसे मैं

    कभी कोई प्रेम-रेखा उसके अदृश्य क्षितिज से

    जहाँ तुम्हारी हथेली पर

    बढ़ गया मेरा विस्थापित देशाटन निर्जन बंजरों की ओर,

    अपनी छाँव में ही छिप जाना चाहता है तपते आकाश तले

    जो कुछ बचा हरा सूखता हुआ

    जूठे बर्तनों के बीच अपने-अपने सच को माँजते

    कि बन जाए वह पारस पत्थर हमारे भरमों के लिए

    अंबर चकमक सच्चाइयों का,

    हर बूँद में छुपे पलों को खिड़की से उठाते

    वही अपना अपना जनम बारंबार

    जिसमें फूटता डूबता एक ही आगत संसार

    कितना लंबा है यह पल निस्तार

    पेड़ों की जड़ों को खोद रही है हवा आकाश में।

    स्रोत :
    • रचनाकार : मोहन राणा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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