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दुःख की बिरादरी

duःkh ki biradri

रूपम मिश्र

रूपम मिश्र

दुःख की बिरादरी

रूपम मिश्र

और अधिकरूपम मिश्र

    मुझे पता है तुम्हारा दुःख बिरादर

    मैं तुम्हारी ही क़ौम से हूँ!

    मुझे थाह है उस पीड़ा की नदी का जिसका घाट अन्याय का चहबच्चा है

    जिसकी उतराई में आत्मा गिरवी होती है

    तुम धीरज रखना हारे हुए दोस्त!

    कुछ अघाए गलदोदई से कहते हैं कि तुम हेहर हो

    उनसे कहो कि हम जानते हैं जाड़ा, बसिकाला और जेठ के दिनों का असली रंग

    वे मनुष्यतर कितने बचे हैं

    वे नहीं जानते

    लड़ाई की रात बहुत लंबी है

    इतनी कि शायद सुबह ख़ुशनुमा हो

    पर लड़ना सदियों की शक्ल ख़राब करने की जवाबदेही होगी

    हम असफल क़ौमें हैं

    हमारी ही पीठ पर पैर रखकर वे वहाँ सफल हैं

    जहाँ हमारे रोने को उन्होंने हास्य के बेहद सटीक मुहावरों में रखा

    जाने कैसे उन्होंने हमारे सामीप्य में रहने की कुछ समय सीमा बनाई

    और उसके बाद जो संग रहे

    उनमें हमारे सानिध्य से आई कोमलता को मेहरपन कहके मज़ाक़ बनाया

    वे सभ्यता और समता की बात करते कितने झूठे लगते हैं

    जो हमारी आँखों पर मेले से ख़रीदे गए काले चश्मे को भी देखकर व्यंग्य से हँसते हैं

    वे सौमुँहे साँप जो हमारी देह पर टेरीकॉट का ललका बुशर्ट भी देखकर

    मुँह बिचकाकर कहते हैं : ख़ूब उड़ रहे हो बच्चू, ज़्यादा उड़ना अच्छा नहीं

    उनसे कह दो कि अब तुम छोड़ दो यह तय करना

    कि हमारा उड़ना अच्छा है या हमारा रेंगना

    अब छोड़ दो टेरना सामंती ठसक का वह यशोगान

    जिसमें स्त्रियों और शोषितों की आह भरी है

    मानव-जाति के आधे हिस्सेदार हम,

    जिनके आँचल में रहना तुमने कायरता का चिर प्रतीक कहा

    अब दिशाहारा समय कुपथ पर है

    संसार को विनाश से बचाए रखने के लिए

    उनसे थोड़ी-सी करुणा उधार माँग लो।

    स्रोत :
    • रचनाकार : रूपम मिश्र
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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