इच्छा होती तब वह धँसा लेता उनके बीच अपना सिर
और जब भरा हुआ होता तो उनमें छुपा लेता अपना मुँह
कर देता उन्हें अपने आँसुओं से तर
वह उससे कहता तुम यूँ ही बैठी रहो सामने
मैं इन्हें जी भर के देखना चाहता हूँ
और तब तक उन पर अपनी आँखें गड़ाए रहता
जब तक वह उठकर भाग नहीं जाती सामने से
या लजाकर अपने हाथों में छुपा नहीं लेती उन्हें
अंतरंग क्षणों में उन दोनों को
हाथों में थामकर वह उससे कहता
ये दोनों तुम्हारे पास अमानत हैं मेरी
मेरी ख़ुशियाँ, इन्हें सँभालकर रखना
वह उन दोनों को कभी शहद के छत्ते
तो कभी दशहरी आम की जोड़ी कहता
उनके बारे में उसकी बातें सुन-सुनकर बौराई
वह भी जब कभी खड़ी होकर आगे आईने के
इन्हें देखती अपलक तो झूम उठती
वह कई दफ़े सोचती इन दोनों को एक साथ
उसके मुँह में भर दे और मूँद ले अपनी आँखें
वह जब भी घर से निकलती इन दोनों पर
डाल ही लेती अपनी निगाह ऐसा करते हुए हमेशा
उसे कॉलेज में पढ़े बिहारी आते याद
उस वक़्त उस पर इनके बारे में
सुने गए का नशा हो जाता दो गुना
वह उसे कई दफ़े सबके बीच भी उनकी तरफ़
कनखियों से देखता पकड़ लेती
वह शरारती पूछ भी लेता सब ठीक तो है
वह कहती, हाँ, जी हाँ
घर पहुँचकर जाँच लेना
मगर रोग, ऐसा घुसा उसके भीतर
कि उनमें से एक को लेकर ही हटा देह से
कोई उपाय भी न था सिवा इसके
उपचार ने उदास होते हुए समझाया
अब वह इस बचे हुए एक के बारे में
कुछ नहीं कहता उससे, वह उसकी तरफ़ देखता है
और रह जाता है, कसमसाकर
मगर उसे हर समय महसूस होता है
उसकी देह पर घूमते उसके हाथ
क्या ढूँढ़ रहे हैं, कि उस वक़्त वे
उसके मन से भी अधिक मायूस हैं
उस खो चुके के बारे में भले ही
एक-दूसरे से न कहते हों वह कुछ
मगर वह, विवश, जानती है
उसकी देह से उस एक के हट जाने से
कितना कुछ हट गया उनके बीच से
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संगीता रंजन के लिए जिसे छाती के केंसर की वजह से अपना एक स्तन गँवाना पड़ा।
- पुस्तक : स्त्री मेरे भीतर (पृष्ठ 68)
- रचनाकार : पवन करण
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
- संस्करण : 2006
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