बूँदी
bundi
अरावली की हरी देह गिराती है बिंब
‘स्वरूपसागर’ ताल के शीशे पर
गूँजती है कोई भूली-बिसरी प्रेम-कहानी तारागढ़ की चित्रशाला में
संगमरमर के झरोखे से एक मार्मिक चीख़ उठती है और
छह सौ सालों के गले में फँस जाती है
किसी ने धोखे से किसी के सीने में कटार भोंक दी है अभी-अभी
धौले धुआँधार बादल क़िले की वृद्ध प्राचीरों पर
कौन-सा सोया हुआ सपना लिए जागते हैं हर सितंबर में?
उलझी हुई आशंकाओं की तरह फैली
ये पतली-दुबली गलियाँ क्या हाड़ाओं का इतिहास भर हैं?
ओह! हमारे ऊपर गिरती हुई इस महान हवेली को ढहने से बचाओ...
धाराप्रवाह आषाढ़ की ऋतु में
यहीं मैंने तुमसे प्रेम किया था घाटी में मोरों की पुकारें सुनते हुए
आसमान के तंबू में छेद करने को उभरा हुआ है क़िले पर
टेलीविज़न का बदसूरत स्टील टॉवर
नीचे, इतिहास
अपनी करवटों में अकुला रहा है
सदियों से बेआवाज़
मोरों की आवाज़ों के बीच
तुमसे प्रेम करते भी मैं सदियों से यों ही उदास हूँ
ताल के तरल शीशों पर
गिरती है ऐसे अरावली
बारिशों की भीगी हुए ऋतु में
जैसे ढहती हो
हम दोनों पर कोई महान
लाचार जर्जर हवेली
आह... बूँदी!
- रचनाकार : हेमंत शेष
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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