बाघ आने पर हम सब छुपते हैं
और वह चले जाने पर?
बाघ पर लंबी चर्चा चलती
ख़ूब लंबी!
तुम छपे अक्षरों में
कई-कई बातें
वैसी ही पढ़ते हो।
मान लो हम सब में
या कम से कम उतने
जितने वह खा सकता
उतने लोगों में
चुप रहना अच्छा
यह चेतना, काश आती
अच्छा होता।
जब तुम सिनेमा घर के
सामने वाले चबूतरे पर
यत्न-पूर्वक पोंछी साइकिल टिका
हाथों साफ़ कर पहने
नायलन की पोशाक में
ज़रा-सा आनंद खोजते,
ज़रा-सी आशा खोजते
ज़रा-सा विश्वास खोजते,
ज़रा-सा एकांत नेह,
प्रेम या दर्द खोजते...
कभी इन सबका उत्स
किसी किशोरी के
औद्धत्य निहित नम्रता में
नमनीयता में,
मैंने उसी राह जाते समय
तुम्हें देखा है।
रास्ता कभी-कभी
साँप-सा
अकेला, ठंडा और
हिंस्र लगता है।
उस पर अकेले क्या
कुछ सोचने की
इच्छा न हो तो
पाँवों को मशीन मानकर,
आँख को देखने का साज मानकर,
साइकिल पर,
स्वयं नहीं,
कोई और बैठा है
और
फिर भी साइकिल सहित
तुम जा रहे यह मान
स्वयं को भारी समझो,
और फिर
एकदम हलका भाव,
स्वयं हो,
स्वयं नहीं हो।
मैंने उसी राह लौटते समय
देखा है तुम्हें।
अपने मन में उलटे तैरने में
चक्कर खाकर
किसी एक गुरु को
मुद्रा प्रेरण कूपन से
अच्छा आदमी बनने का निर्देश ले
आधी रात में,
अगली सुबह की बात को
तुम मन से
ज़बरन निकाल दो,
और एकांत क्लांति नशे में
सो जाओ।
मैं उसी राह जाते समय
सुनूँगा तुम्हारे खर्राटे
भाई !
- पुस्तक : बीसवीं सदी की ओड़िया कविता-यात्रा (पृष्ठ 133)
- संपादक : शंकरलाल पुरोहित
- रचनाकार : जेनामणि नरेन्द्र कुमार
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2009
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