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कन्हई कहार

kanhi kahar

रमाशंकर यादव विद्रोही

और अधिकरमाशंकर यादव विद्रोही

    रुकी हुई साँसों में खौल उठती हैं खाँसियाँ,

    अंतड़िया हूम देती हैं, काले कोयले जैसा ख़ून।

    एक कमज़ोर हाथ के सहारे टिक जाती है चेतना,

    और आँखों में घूम जाती है एक लंबी ज़िंदगी,

    एक कमज़ोर हाथ जो

    अनजाने ही लग गए थे हाथ।

    माँ की सिफ़ारिश और बुद्धिराम की अगुवाई,

    जिसका दाम गौने की ढूँढ़ियों और

    इकलौती हँसुली से कुछ ज़्यादा ही था।

    एक बच्चा ढोरों के पीछे ढुलकता है,

    बुद्धिराम उसे कन्हैया कहते हैं,

    ज़माने ने उसी का नाम रखा

    कन्हई कहार।

    जिसकी भीगी मसों पर

    छाप दी गई एक बहंगी और

    कंधों ने सँभाल ली बड़े घरों की आबरू।

    रंगीन बतासों की डलिया और

    गौने की एक हज़ार ढूँढ़ियों में

    हर बार हासिल होता है जौ का अखरा,

    और मुँह मशक़्क़त के नाम पर

    अब भी याद हैं कुछ कबीरें।

    कहार की कबीर घुड़सवार का लहरा नहीं होती मेरे दोस्त!

    और ही वो नकद मजूरी की, घलुवा मशक्कड़ी है।

    सावन की निर्वाहिनों पर

    ऐड़ा रगड़ना एक बात है,

    उठाते हुए खाद का खेप

    छातियों पर हाथ पटक देने में

    कुछ ज़्यादा ताक़त नहीं लगती,

    लेकिन गुरु-गंभीर बहू को

    कंधे पर लादकर कुफार बोलने में

    कमर तक हचक जाती है।

    नौसिखिए बछवे की तरह

    आए हुए कंधों को

    नहीं थाम पाती बहुत दिनों तक चिलम,

    फागुन के कबीर, चैते की गारंटी नहीं होती,

    और ही कहरवा के सहारे ज़िंदगी कटती है।

    नाचने का शौक़ एक बार सबको होता है,

    लेकिन पैरों में ज़िंदगी बाँधकर नहीं नाचा जाता।

    ज़िंदगी कोई घुँघरू नहीं है,

    और ही वो बच्चों का झुनझुना है।

    कभी सोचा था कि असली ज़िंदगी

    हुडुग और झाँझ होते हैं,

    लेकिन मटकती देह सपाट हो गई।

    और सूख कर तैंतीस में ही तिरासी बन गई।

    कब तक थामेंगे कमज़ोर हाथ

    पहाड़-सा दिन और वज्र-सी रातें,

    कब तक चलेंगी ख़ून की कुल्लियों के बीच

    साँसें।

    स्रोत :
    • पुस्तक : नई खेती (पृष्ठ 43)
    • रचनाकार : रमाशंकर यादव विद्रोही
    • प्रकाशन : सांस, जसम
    • संस्करण : 2011

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