ज्यों काग़ज़ की नाव छोड़ जाए कोई धारा में
jyon kaghaz ki naw chhoD jaye koi dhara mein
कृष्ण मुरारी पहारिया
Krishna Murari Pahariya
ज्यों काग़ज़ की नाव छोड़ जाए कोई धारा में
jyon kaghaz ki naw chhoD jaye koi dhara mein
Krishna Murari Pahariya
कृष्ण मुरारी पहारिया
और अधिककृष्ण मुरारी पहारिया
ज्यों काग़ज़ की नाव छोड़ जाए कोई धारा में
प्राण फँस गए हैं अनचाहे साँसों की कारा में
एक चेतना है जिसका सुख मलयानिल-सा घेरे
खींच रही आगे ही आगे, चल सूरज के डेरे
अंतर्द्वंद्वों में विकसित हो, खिलती हुई कमल-सी
लुभा रही है भटके मन को, ज्यों ध्रुव से संबल-सी
एक सुलगती तिनगी जैसे लगी हुई चारा में
एक हंस आगे-आगे है, पीछे चला पखेरू
डगमग-डगमग पैर उठाता, साध रँगाए गेरू
लाल रंग गेरू का ऐसा, जैसे लोहित आँखें
नए भोर की ओर चलो तो कब थकती हैं पाँखें
हम हैं वही कि जिनकी काया सनी हुई गारा में
- पुस्तक : यह कैसी दुर्धर्ष चेतना (पृष्ठ 69)
- रचनाकार : कृष्ण मुरारी पहारिया
- प्रकाशन : दर्पण प्रकाशन
- संस्करण : 1998
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