कविता के बदलते स्रोत

kawita ke badalte srot

संजय चतुर्वेदी

संजय चतुर्वेदी

कविता के बदलते स्रोत

संजय चतुर्वेदी

और अधिकसंजय चतुर्वेदी

    कविता से जनता है बाहर

    विधिवत् उसका भाग हटाकर

    कविता की ख़ाली ज़मीन पर

    फैल गया है सखी सरोवर

    इसकी जलकुंभी के नीचे

    छोटे-बड़े कई धोखे हैं

    उधर बीच में सभी तरह की चिंताओं की खिली चाँदनी

    और चाशनी के तनाव पर तरह-तरह की नौकाएँ हैं

    रूपधूप कंपित तड़ाग में ऐसी कोमल क्रांति हुई है

    करुणा कोई रस हो जैसे

    सुना यही है करुणा शायद रस है कोई

    और अगर सच में ऐसा है

    फिर करुणा की बुरी कथा है

    कोटि-कोटि जन दुःख पाते हैं

    निर्मम व्यभिचारी बापों के

    बेज़ुबान बच्चे हों जैसे

    और जाने कितनी-कितनी ही माताएँ

    बच्चों जैसी हालत में हों

    और हमारी चली अगर तो

    उनके दुख का अंत नहीं है

    प्रतिरोधी प्रवाह को बाँधे

    कोमलकूट पदावलियों की उलझन देती वल्लरियाँ हैं

    जैसे-जैसे अपनी कविता बढ़ती जाती

    उनका दुख बढ़ता जाता है

    इसी रसा के सदानीर में

    काफ़ी चिकनाए दुखियारे

    अपनी अपनी नौका लेकर हौले-हौले डोल रहे हैं

    कुछ ऐसा है सखी सरोवर काम सभी का हो जाता है

    किसी सखी का ख़्वाजा प्रेमी

    किसी सखी का राजा प्रेमी

    जिनका हर कोई है प्रेमी ऐसी चंद महासखियों ने

    लंबा-चौड़ा जाल बुना है

    लिप्सा जहाँ विचार कला का प्रेरक तत्व बनी बैठी है

    प्रेम और कोमल भावों के घोषित प्रतिनिधि

    अपना-अपना प्रेम उठाकर जलकुंभी में घुसे हुए हैं

    धीरे-धीरे इस पानी में सखियों का विष फैल रहा है

    घोषित कवियों के छलबल से

    कूटकुंड के काले जल से

    रुग्ण वासनाओं के मल से

    पीड़ित अपमानित हो-होकर

    छोड़ चुकी जो सखी सरोवर

    जनता कहीं दूर अपनी कविता का पानी खोज रही है

    पहले जो मिल जाता था फ़िल्मी गीतों में

    वह भी तो अब सूख चुका है

    फूहड़ बाज़ारू कविता भी जीवन बड़ा बना सकती थी

    किंतु वहाँ भी दल्लों का व्यापक प्रबंध है

    हालत ऐसी है समाज की

    अब कविता के ऐतबार से खोने को कुछ बचा नहीं है

    एक और धारा थी अपनी बहुत पुरानी

    गली-मुहल्लों से पैदा वह शब्द-अर्थ की मतदाता थी

    करख़ंदारों की ज़ुबान या राजा-रानी की लफ़्फ़ाज़ी

    सच्चाई की ताक़त लेकर वह सब ओर दख़ल देती थी

    लेकिन ऐसी हवा चली कुछ

    सखीवर्ग के षड़यंत्रों की

    नकली और निरर्थक होना गुणवत्ता का हुआ नियामक

    कुछ मनहूसों के प्रभाव में

    हीनग्रंथि को विकसित करने का लंबा सामान जुटाया

    कुछ कृतघ्नता मानी जाने लगी आधुनिकता का मूलक

    ग्लैमर रहा साध्य सखियों का

    किंतु विदेशी कविताओं को व्याज बनाया

    दूर देश में जो अपने जन को ताक़त देती रहती थीं

    वे ही जब बनकर के आईं माल फ़िरंगी

    उनका असर हो गया उल्टा

    अपने देशों में जो वंचित बहुजन का हथियार बनी थीं

    यहाँ उठाया गया उन्हें उन पैमानों में

    ज़्यादातर वे मनहूसों के ग्लैमर का आतंक बन गईं

    बाज़ारों का ग्लोबल होना भले एकदम अलग बात हो

    लेकिन उससे दशकों पहले

    हिंदी कविता के ग्लोबल होने की उथल-पुथल के पीछे

    कहीं-कहीं चालू लोगों के चोर मुनाफ़े छुपे हुए थे

    अब लगता है धीरे-धीरे उसी वर्ग की जीत हुई है

    दूर-दूर की बड़ी-बड़ी चिंताएँ चल दीं आगे-आगे

    नीचे-नीचे निहित स्वार्थों के भी धागे

    फिर जो फ़ैशन आम हो गया

    उसी हवा में चक्कर खाकर क़लम-कमेरे पीछे भागे

    हर देशज उपलब्धि हिक़ारत की झोली में

    हम तस्कर की तरह घुसे अपनी बोली में

    और कई बातें थीं ऐसी

    जो ख़ालिस धंधे की होतीं

    किंतु यहाँ पर थे विद्वज्जन

    सो उनको तहज़ीब बनाया

    बम्बइया फ़िल्मों में जो हीरोइन बनवाने के रस्ते

    कमोबेश अंतर को लेकर

    वे बैठे यहाँ किताबों और ख़िताबों के जाले में

    एक दूर की नैतिकता का बोर्ड लगाकर

    दैनंदिन नैतिकता से छुटकारा पाया

    आज यहाँ हालत है ऐसी

    जीवन भर पत्नी को इस्तेमाल किया है

    जिन लोगों ने झाड़ू जैसा

    सहज कला से बच्चों की अनदेखी की है

    आधी आबादी में जिनको मात्र भोग्या की तलाश है

    वे प्रतिनिधि कवि बने हुए हैं प्रेम और कोमल भावों के

    सबकी उस अमोल धारा को कुंठित करने

    और चलाने को अपनी ही

    नवसत्ता से संधि भिड़ाकर

    ताक़तवर था सखी वर्ग कटिबद्ध हो गया

    लेकिन एक प्रश्न है फिर भी

    इतनी गुरु परंपरा थी तब

    कैसे सखियाँ जीत गईं लेकिन जन हारे

    कविता के घोषित जनपद पर

    जनहित व्यभिचारी लोगों ने

    कोई राह नहीं जब छोड़ी

    जनता ने जनपद को छोड़ा

    और आज वह नए विकल्पों की तलाश में डोल रही है

    घूमी होगी कई बार पहले भी शायद इस हालत में

    जहाँ काव्य के स्रोत सभी कविता से बाहर पाए होंगे

    कहीं अकेला नज़र झुकाकर कोई काम कर रहा होगा

    जिसके दम से देर सवेरे रेलगाड़ियाँ

    लाखों लोगों को अपने घर पहुँचाती हैं

    कोलाहल में घटाटोप में हैरानी की हालत में भी

    अहर्निशम् सेवा में कोई लगा हुआ है जिसके दम से

    कोटि-कोटि जन चिट्ठी-पत्री पा जाते हैं

    इस युग का महान अचरज है जहाँ कि अक्सर

    श्रम को और योग्यता को अपमानित ही होना पड़ता है

    मुट्ठी भर लोगों के हित में

    बंधक है कानून व्यवस्था

    बड़ा न्याय ऊँचे वकील की महँगाई में

    संविधान भी फटेहाल है

    कहीं हज़ारों लाखों प्राणी

    मात्र आत्मा के संबल पर

    घटाटोप से बचा निगाहें अपना काम किए जाते हैं

    लिप्साओं के बीच अकेली

    पीछे छूट जाए दुनिया

    धीरे-धीरे इस दुनिया को अपने साथ लिए जाते हैं

    ऊटपटाँग हरकतों वाली

    घोर निराशाओं के युग में

    इस प्रायः अदृश्य वैभव का

    औघड़ कोई मानी होगा

    ये जो लाखों लोग यहाँ पर अपना काम किए जाते हैं

    उनके जीवन के स्रोतों में

    कविता का भी पानी होगा

    विधिवत् जिन्हें निकाला देकर

    नकली कविता के चालू प्रभुओं ने फेंक दिया है बाहर

    उन्हें कहाँ फ़ुरसत है इतनी

    और क्या पड़ी अंतहीन लिप्साओं वाले

    कलाभवन को मुड़कर देखें

    वे ख़ुद अगम अघोषित विधि से अपनी कविता बना रहे हैं।

    स्रोत :
    • रचनाकार : संजय चतुर्वेदी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

    संबंधित विषय

    यह पाठ नीचे दिए गये संग्रह में भी शामिल है

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।

    पास यहाँ से प्राप्त कीजिए