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बोध

bodh

अनुवाद : दिनकर सोनवलकर

कुसुमाग्रज

और अधिककुसुमाग्रज

    मेरी अनुमति की प्रतीक्षा किए बिना

    यह विराट लहर

    मेरे अस्तित्व पर से गुज़रती है

    तीव्र गति से

    उस राक्षसी प्रवाह के भार से

    मेरा दम घुटने लगता है

    और अलगाव से पोषित

    मेरा अहं

    टुकड़े-टुकड़े होता है।

    व्यक्तित्व की विशिष्टा की परतें

    होने लगती हैं अस्पष्ट और रंगहीन

    सांध्य क्षितिज की तरह।

    वह विराट लहर गुज़र जाने के बाद

    (और दूसरी के आने से पहले)

    इस अंतराल में

    मैं देखता हूँ सामने आश्यर्यचकित;

    तब होता है यह बोध

    कि मैं नहीं हूँ अनेकों में एकमेव

    विशिष्ट

    मैं तो हूँ

    अनेकों में केवल एक जन

    जो है

    सब में

    सबका

    सबके लिए।

    स्रोत :
    • पुस्तक : प्रतिनिधि संकलन कविता मराठी (पृष्ठ 47)
    • रचनाकार : कुसुमाग्रज
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
    • संस्करण : 1965

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