जाने कितने बच्चे अलग-अलग पलंगों पर जन्मे होंगे!
कितने गर्भों में लाल नीले अंकुर फूटे होंगे!
कितने जोड़ों ने रतिक्रिया में अभी तय किया होगा नया नाम
कितनों के जीवन ख़त्म हो रहे होंगे, होने को होंगे या हो गए होंगे!
इस एक पल में
कोई तालाब किसी कंकड़ के डूबने से ठीक अभी ही तरंगित हुआ होगा
कहीं बर्फ़ गिरी होगी और सफ़ेद मौन पसर गया होगा
कहीं कोई पत्ता पीला पड़कर भी मोहवश अपनी डाली से चिपका होगा
इस इंतज़ार में कि अलग होने का सारा दोष मढ़ दे तेज़ हवा के माथे पर
कहीं किसी स्त्री का कहीं किसी बच्चे का अलग-अलग
दीवारों के पार शोषण हुआ होगा
कोई अँतड़ियों में चाक़ू की घोंप लिए,
छाती में या टाँग पर तमंचे की गोली खाए
या रोडवेज बस से टक्कर खाए
अस्पताल के गेट पर कर रहा होगा स्ट्रेचर का इंतज़ार
जबकि उसे अपनी मौत का पक्का यक़ीन हो गया होगा
कोई क़तार में खड़ा होगा दूर की यात्रा के टिकट के लिए
कहीं विद्रोह की रणनीति कच्ची-पक्की हो रही होगी
किसी दफ़्तर में नियुक्ति की नोटिस नत्थी हो रही होगी
कोई सेवानिवृत्त हुआ होगा
कहीं गठबंधन के लिए साँठ-गाँठ/जोड़-तोड़ हो रही होगी
कहीं क़साई ने मुर्ग़े की गर्दन रोज़ी-रोटी की ख़ातिर दी होगी मरोड़
किसी ने फूल को देखकर तोड़ने का इरादा पहले बनाया होगा,
फिर एकाएक एक नया मनुष्य जन्म आया होगा
और फूल मुस्कराया होगा
कहीं कोई रिश्ता टूटा होगा तो कहीं कोई रूपमोहित होकर ‘हाँ’ बोला होगा
भूल कर कि भंगुर होता है देह का सम्मोहन और गुणों का आश्वासन
साथ-साथ चलने पर भी नहीं होता कभी दो किनारों का मिलन
कोई भूल गया होगा मिट्टी के गर्भ में रत्न ही नहीं,
रहस्य और आग भी हैं
इतिहास में हुई छेड़छाड़ के साक्ष्य इसी भूमि पर कहीं आज भी हैं
किसी नाव ने ठीक अभी ही किसी किनारे को भरोसे से छुआ होगा
कोई कोलम्बस को गूगल करते हुए वास्को डी गामा के ज़रिए
मैप में कालीकट तक पहुँच गया होगा।
किसी ने अभी पहला अक्षर सुना,
बोला या पढ़ा होगा।
कोई बच्चा इसी पल में पिता के पंजों पर धरकर अपना पहला क़दम चला होगा
ऑपरेशन के बाद मोतियाबिंद के मरीज़ ने इसी पल आँखों को खोला होगा।
उसने शुक्रिया बोला होगा।
किसी को लग रहा होगा कि सुबह होने को है।
कहीं सूरज छिपने तक काम ख़त्म करने का दबाव बन रहा होगा।
कहीं कोई अपह्रत, कोई तिरस्कृत और कोई उपेक्षित हुआ होगा।
कोई पीड़ा से मुक्ति पाने को आत्महत्या का सरलतम तरीक़ा खोज रहा होगा।
कोई निर्धारित दंड से दया के लिए याचिका लिख रहा होगा।
कोई आस्था से भरा ईमानदार कसमें उठा रहा होगा,
तो कोई घर से गाली देता हुआ मूर्तियों को बाहर फेंक रहा होगा
समग्र में कितनी क्रियाएँ एकसाथ सम्पन्न हो जाती हैं
फिर भी, हम से कोई न कोई टकरा जाता है हमारी तरह का
वह एक पल का षड्यंत्र होता है।
तो इस एक पल के षड्यंत्र में मैं कहाँ हूँ?
मैं इस बात पर कविता लिख रही हूँ कैसे कहते हैं!
इस बात पर लगातार बोले जा रही हूँ कि महसूस कैसे करते हैं!
जल्दी भूलते कैसे हैं और सालों तक याद कैसे रखे रहते हैं!
कैसे जागते हैं और कैसे जागते ही जाते हैं!
कैसे सपनों से दूर भागते हैं!
कैसे ख़्याल रखते हैं
इस एक जीवन में सूर्योदय और सूर्यास्त जैसे
प्रचारित सार्वभौमिक सत्य भी पूर्ण सत्य नहीं होते!
इस एक पल में
कहीं कोई सकुचाहट भरे यत्न से
अपने जीवन की पहली कविता भी तो लिख रहा होगा।
और लिखे हुए को संशय से देख रहा होगा
क्या यह वही है, जो मुझे कहना था!
- रचनाकार : प्रिया वर्मा
- प्रकाशन : समकालीन जनमत
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