भूख के शिकार पर निकले ये शिकारी
एकदम मुकम्मल आदमी हैं
लेकिन इन्हें सपने नहीं आते
जिनको इन्होंने नदी किनारे बालू पर
उनके श्राद्ध करके गोपी का टीका लगा लिया
गाँवों के स्कूलों की टाट-पट्टियों पर बैठकर
इन्होंने जो बेरोज़गारी के गुर सीखे थे
वे यहाँ फ़ैसलाकुन मशविरे में परिवर्तित होने लगे हैं
बड़े घरों और झोपड़ों के बीच
जो दया के सदाव्रत सजाए जाते हैं
वहाँ ख़ुदग़र्ज़ी और ग़र्ज़मंदी के बीच
ये जीवन भर मिट्टी में
मेहनत का रंग ढूँढ़ते ही रह गए
चलो यहाँ इनको इतना तो पता चला
मेहनत के लावे का आतंक ठंडा होता है
जिधर गिद्ध जा रहे होते हैं
उधर कोई लाश ज़रूर गिरी होती है
पंद्रह अगस्त उन्नीस सौ सैंतालीस की आधी रात
जब ग़ुलामी क़ब्र में लेट गई
तो बातूनी चाँदनी की सरपरस्ती में
किसी भी हुड़ाहुड़ी और लीपापोती से दूर रहने वाले
इनके छौने और बिछौने दालान में आ गए
लेकिन ठीहे-ठिकाने न लग पाई इनकी आज़ादी को
कढ़ाह घोलने को पानी कम पड़ गया
सर्वतो भद्रमंडल में बैठे
वातरोगी माया-नटिनी के दत्तक पुत्रों ने
इनकी हड्डियों के बारीक छेदों से
जीवन के यात्रा-भत्ते का पूरा अरक बाहर खींचकर
कौर-कलेवे की जगह वहाँ बीट की कुंडलियाँ भर दीं
जहाँ आदमी की लंबाई काम से मापी जाती है
वहाँ ये बिल्कुल बौने पाए गए
इनके घरों में खिड़की राशेनदान नहीं होते
अलबत्ता धूप रसोई से पर्दे ज़रूर रोज़ हटाती है
एक अनिवार्य रिवाज के तौर पर
थकावटों के शव ढोते इन वीरों को
कोई वीरता पुरस्कार नहीं दिया जा सकता
क्योंकि केवल मिट्टी को पता है
इनका पसीना कहाँ-कहाँ गिरा है
वक्त आ गया है
विनोबा के दान-पात्र को
मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई में मिले ठीकरों के साथ रखकर
उन पर खुरपी फेर दी जाए
अब तो राज्य के कोषागार में
नौलखा मोतियों के हार के साथ बंद
नौतोड़ के पट्टे के दस्तावेज़ों
दीवार पर बैठी धरती को ताकती
विनोबा की तस्वीर की आँखों में भी नींद टहलने लगी है।
- पुस्तक : ध्वनियों के मलबे से (पृष्ठ 113)
- रचनाकार : हुकुम ठाकुर
- प्रकाशन : आधार प्रकाशन
- संस्करण : 2016
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