भवन
bhawan
इस भवन में लगे हैं चूहे
ऊपर भी
और नीचे भी
एक युग से
ये भीतर ही भीतर
कुरेद रहे हैं इसे
झर रहा है लेप दीवारों का
और छत लटक रही है
पास से चलने वाले हर व्यक्ति ने
उखाड़ लिए हैं
इसकी नींव में लगे पत्थर,
झर गए हैं धरन इसके
और कोनियों में पड़ी हैं दरारें
उसकी खिड़कियों और ताक़ों पर
मकड़ी के जाले लगे हैं
दरवाज़े के कंगूरे निकल आए हैं
देखने वाले हैं विस्मित
सोच नहीं पा रहे हैं
कैसे अब तक है खड़ा
किसी की समझ में नहीं आ रहा
यह पुराना भवन टूटा-सा
इसमें पल रही है नेवलों की
एक पूरी प्रजाति
जो निवासियों पर टूट पड़ती है अचानक
और नोच लेती है उनकी आँखें
और फिर सारा भवन रक्त से धुल जाता है
जिनसे बन पड़ा
वे भवन छोड़ चले
उनमें बहुत पर्वतों में मर-खप गए
कई असमय बलि चढ़े
कुछ मरुस्थलों में जा बसे
और कुछ समुद्रों के पार चले गए
बेघर होकर कुछ ने केवल
अपने प्राण बचाए
भूल गए अपना परिचय
कि वे कौन थे और कहाँ आ पहुँचे थे
कुछ ही लोगों का निवास है अब
इस भवन में
अब इनके भाग्य में है कि
सुबहों को शाम कर दें
रोते रोते,
वे जानते हैं
कि कभी-न-कभी कोई दीवार
उन पर आ गिरेगी
वे जानते हैं
कि निरुपाय हैं वे
और वे कुछ करने में असमर्थ हैं
इस भवन की नींव दृढ़ है
युगों से खड़ा है यह भवन
काश हमारे भी दिन निकल ही जाएँ
पर
उनकी आँखों के सामने
उनका श्मशान मुँह खोले
खड़ा है।
- पुस्तक : उजला राजमार्ग (पृष्ठ 113)
- संपादक : रतनलाल शांत
- रचनाकार : मोतीलाल साक़ी
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2005
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