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भटकती है माँ

bhatakti hai man

रामजी तिवारी

रामजी तिवारी

भटकती है माँ

रामजी तिवारी

और अधिकरामजी तिवारी

    मोतियाबिंद के साथ उसकी आँखों में

    बलगम के बीच बाबू के फँसे फेफड़े

    एक साँस की ख़ातिर भूँकते हैं,

    किस रंग का है लुगाई का लुगा

    पेवनों से पता नहीं चलता

    और अक्षरों की जगह

    खिचड़ियाँ खाते बच्चों का ख़याल आते ही

    उसके उठे हुए चौड़े पुष्ट कंधे

    कमान की तरह झुकते हैं।

    सिर तीर जैसा छूटता प्रतीत होता है,

    अपनी ही परछाई को बौनी होते देखते हुए

    सिहरन पूरे बदन में जैसे कोई बोता है।

    जी में आता है इतना रोये

    कि यह चौराहा उसके आँसुओं में डूब जाए,

    इतना चिल्लाए कि इस शहर की नींद टूट जाए।

    सामने मंदिर की सीढ़ियाँ उतरते भक्तजन

    बंद कर ले जा रहे हैं ईश्वर को

    डिब्बों में मिठाई के बहाने,

    पहुँचे व्यवस्था के

    सड़न की बदबू उस तक

    सज़ा दिया गया है फूलों को

    इसीलिए उसके सिरहाने।

    एक गाड़ी के रुकते ही

    कानाफूसी बढ़ती है,

    खिल जाती हैं बाँछे

    उम्मीद परवान चढ़ती है।

    कभी नहीं रखे उसने

    चोटी और टोपी के सवाल

    अपने प्रश्नपत्र में,

    वरना इतनी-सी गुज़ारिश

    ‘काम मिलेगा बाबूजी?’

    किसी भी साइत किसी भी नक्षत्र में।

    अपने जीवन के रंग की तरह

    धूसर हो गए इस लुंगी और क़मीज़ में

    वह अपनी क़िस्मत गोदता है,

    इस लेबर चौराहे पर पानी पीने के लिए

    प्रतिदिन कुआँ खोदता है।

    मैं देखता हूँ सभ्यता के आक़ाओं को

    सूट-बूट में ऐंठते गुज़रते

    इस चौराहे से निसदिन

    काम करना जिनके लिए

    पाप हो गया हो,

    वातानुकूलित कार्यालयों की सारी कुर्सियाँ

    मुँह उठाए करती हैं इंतज़ार

    और साथ ही यह कामना भी

    कि ‘मांस के इस पिलपिले ढेर’ का पेट

    आज साफ़ हो गया हो।

    कैसी विडंबना ये

    कि झुक जाए कंधे जिनके काम के नाम से

    विश्वास है व्यवस्था को उन्हीं पर,

    जो टूट जाए इनके अभाव में

    भटकते फिरें वे दर-ब-दर।

    सारी रोटियाँ उनके सामने

    जिनके उदर में चर्बियों की राख है,

    और झपट ले गए शिकारी कुत्ते उनकी रोटियों को

    जिनकी भट्ठियों में लहकी हुई आग है।

    नींद की गोलियों पर निर्भर आँखें

    सपने हैं सँजोती,

    और अपनी इच्छाओं के बंडल में

    नींद की चादर लपेटकर चलने वाली आँखें

    ख़ून के आँसू हैं रोती।

    नंगों के पास खिंची चली आए

    सारी दुनिया की कपास,

    और उगाने वाले पाएँ भी

    तो बस उतना ही

    कि बन जाए गले की फाँस।

    आलीशान कोठियों में

    दो जोड़ी पथराई आखें भाँय-भाँय रोएँ,

    और लाखों चमकती आँखें

    पॉलीथीन का आसमान तानकर सोएँ।

    तलाशूँ सूत्र मैं धुँधलके में

    विडंबनाओं का,

    नहीं आता सिरा हाथ में

    कैसे खोलूँ गाँठ उलझावों की।

    अब तो हमें करनी होगी

    चमकीली सुबह की तलाश,

    निराशाओं के भँवर में

    दिखती वही एक आस।

    आख़िर मानव जाति

    कब तक रहेगी सोती?

    होने वाली है सुबह

    क्योंकि कोई भी रात

    इतनी लंबी नहीं होती।

    स्रोत :
    • रचनाकार : रामजी तिवारी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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