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भाद्रपद के धारासार में

bhadrapad ke dharasar mein

चंचला पाठक

चंचला पाठक

भाद्रपद के धारासार में

चंचला पाठक

आकुल विरहिणियों ने जी भर कोसा

बारहमासा की ओट से

अपने-अपने प्रेमियों को

दुनिया का ऐसा मृदुल उपालंभ

कहीं भी और उर्वर हुआ

मेढों पर बिछ गया—

पुनर्नवा की पोर पोर में यह उपालंभ

मेघगर्जना में वस्तुतः

इन्हीं विरहिणियों के

मौन की उत्ताल ऊर्जा है

दमकती है जो दामिनी

विरहाकुल प्रियांगिनियों के

तीक्ष्ण कटाक्ष की भ्रू-भंगिमाएँ हैं

धान की गाभ से छलक रही जो

अन्नाद-गँध भोर की शिखा पर

अद्धरात्रि के नीरव में

उसी उपालंभ की अदहन में हुआ था परिपाक

सनई की गोष्ठियों में

उज्ज्वल के आह्वान से

भयाक्राँत हो रहीं

कमलिनी जैसी प्रोषितपतिकाएँ

नदी तट पर पंक्तिबद्ध कास के

नवांकुरों पर

चमक रहे जो जलबिंदू

कास के फूल जाने के

असित सित भ्रम में

ठहर सा गया गया हृदय स्पंदन

प्रतीक्षाओं के गहन पाताल पर

विरह की महाकुंभ-प्रस्थापना

पल-प्रति-पल हो रही बृहदाकार

स्वाति की एक बूँद गिरी हो

किसी कामिनी की विरहाकुल उच्छ्वास पर

नहीं है उद्धृत किसी शास्त्र में...लोक में...पारायण में...

स्रोत :
  • रचनाकार : चंचला पाठक
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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