''भाल तेरा सदैव जगमग रहे, दुर्गा"
bhaal tera sadaiw jagmag rahe, durga
दुर्गा का अपने पति भूतनाथ को हावड़ा, डाकख़ाने से पत्र भेजना
प्रत्येक षष्टि की रात्रि दुर्गा पति भूतनाथ को पत्र लिखती। पत्र का अभिप्राय भूतनाथ को छोड़ कोई समझे, यह दुर्गा को कभी इष्ट न था किंतु टीकाओं से बनी भारतभूमि पर वर्ष पर वर्ष कोई कवि पत्र चोर कर टीका करने बैठ जाता। प्रेम में, बताओ, क्या है जो इंद्रियगोचर है—पत्र मात्र को छोड़कर!
पत्र
नाथ, अवश्य ही तुम्हें सती, पूर्वपत्नी
का स्मरण नित्य होता होगा जो अग्नि में
तुम्हारे मान के लिए भस्म हुई अपने
पिता के घर अन्यथा तुम मुझे पत्र लिखते।
मन तो अब भी सती के स्पर्श, दृष्टि तथा
रस के लिए व्याकुल होता है तुम्हारा?
इतने तो इंद्रियाराम नहीं हो मेरे
भूतनाथ। मुझे इष्ट बस तुम्हारे उछंग
लगकर बैठना है और विप्रलब्ध का क्या
है? जभी तुम्हारे निकटतम होती थी तब
विस्मृति के कारण अकेली हूँ ऐसा ही
लगता था। बुरा हो अद्वैत का। तुम्हारी
जूठी खिचड़ी खाऊँ तब सुखी हो सकूँगी
दुबारा। हाँ, यहाँ सुख बहुत है तात-माता
के निकट परंतु तुम्हारा उच्छिष्ट खाने
का सुख नहीं। अब चांडाल रूपसी बनकर
निशीथों को तुम्हारे निकट आऊँगी। तुम
चांडाल नर का भेष धरना। अधिक कहते
लज्जा होती है। मुझे पूरा संदेह है
कि कवि इधर मेरा पत्र छुपकर बाँचते है।
—दुर्गा
दुर्गा का अपनी माँ और बहनों के संग साड़ी ख़रीदने जाना
बड़े बड़े चक्षुओं में कज्जल देकर, स्फटिक के
कुंडल पहन कर सब जातीं गड़ियाहाट
नूतन बस्त्रालय की प्राचीन पेढ़ी
जिसका मन कषाय न हुआ था
जो भगवा पहनता ऐसा गाड़ीवान बुलाती माँ
घोष ऊझ-ऊझकर बतलाते
जामदानी ताँत, मुर्शिदाबाद का रेशम
और देहात से आए तोते कढ़े काँथे का काज
शारदामणि हर बार लाल पाड़े की धोती लेकर
कोना पकड़ लेती, बिष्णुप्रिया बनारसी साड़ी लेती
लाल किनोर की या जामुनी बालुचर
दुर्गा कोपवती, कापटिक है माँ; बड़े घर की विराज बहू
है बिष्णुप्रिया तब ही न सदैव कांतिमती धोतियाँ लेती है
मुझे तो
कांतार में कुटी छवाकर रहनेवाले कापालिक को
दिया है, मेरा क्या है!
यह कापोत कुचैली धोती पहने रहूँ।
माँ उधार करती और तीन बालुचरी धोतियाँ
मोल लेती, घोष को बताती, दुर्गा षष्टि को हुई
तब से ही क्षण रूष्टा क्षण तुष्टा है।
लौटते गोधूलि हो जाती मूँगे के कंकण के रंग की
बत्ती जलाने से पूर्व घर में भरा तिमिर—
कषाय नववस्त्रों से दर्पण जैसा भासता।
देवी दुर्गा का माँ के घर, हावड़ा आना
वाष्प, ऊमस, मेघों
के मारे दशा बुरी है जैसे
पारिजात गुँथकर सब
संग पसीज गए हो। गौड़
जनपद के नौकाघर
लगते-लगते बनारस से चले
स्टीमर में देर हो
गई। दुर्गा देवी अपने
दो बेटों कार्तिक व
विनायक के संग, छोटी भगिनी
सरस्वती बीच बाट
बीन बजाकर थोड़ा हृदय
लगाए रख रही थी।
माँ, गौडुम्ब1 मिलेगा? गौडुम्बों
को खाकर ही ऊमस
से उन्मुक्ति हो सकती है।
ढेर जल पर डोलती
नाव पर जब हाथियों के टोले
जैसे मेघ घिरें हो
ढाई मास से बरसात न
रुकी हो तब गौडुम्ब
कहाँ से हो! ढुंढा2, चूड़ा, लवन,
गुड़ खा यात्रा कटी।
हावड़ा में भीड़-भड़क्का
भीषण। बक्सें, लोटा
छाते और गहने गिन-सँभाल
उतारना। फिर उसके
पश्चात् स्नान, दर्पण, सब
शृंगार। तब मत्स्य
और भात का भोज। एड़ी और
अँगुली मध्य स्थान
जो है वह बहुत दुख आया
है। अबेर तक ठाढ़ी
कलकत्ते की भूमि देखने का
यत्न करती। कार्तिक
को तल देना लूची और
चाप। मेरा कार्तिक
मद्रास चला गया। फिर लौटा न
कभी मुख तक दिखाने
के लिए। निर्मोही निकला।
(भगवान को भी यात्रा में कष्ट होते हैं। भगवान के परिवार में भी क्लेश लगे रहते हैं, उनको भी मोह-माया, सुख और दुःख होते हैं।)
गुंजाफलों की माला पहने
थोड़ी मदिरा के कारण लड़खड़ाती हुई
टेढ़ा चंद्रमा केशों में खोंसे
शिशु गणपति को गोद में भरकर
स्तनपान कराती
कवियों से घिरी
किंतु हिमालय के शुक से श्लोक सुनती
देवी नैहर आने को निकल पड़ी है...
शरद पूर्णिमा
नवान्नभक्षण के दिनों से
पूर्व, वृद्धवर्षा की सब
रात्रियों को; कास, कचनार
कोजागर, धान, सिंघाड़ों की
कचरघान से जब अटी पड़ी
होगी भूमि; अम्बर पांडे,
मैं आऊँगी तुमसे मिलने।
नाट्यमंडली के संग नित्
देशभ्रमण करते भी जान
न पाई अब तक कि स्त्री को
अपने पंडित का आलिंगन
कैसे करना चाहिए उचित?
अति उत्कंठा से स्तनों का
आगे आगे का भाग लाल
कचूर दाड़िमकुसुमों जैसा
हो जाएगा, कठेठ भी तो
कच्चे कठूमरों जैसा। तब
ऐसे कसूँ ज्यों कठबंधन
कि तुम्हारे कंठ पड़ जाए
काचमणियों के मेरे हार
की छाप या इतनी देर तक—
दोनों के स्वेद की सुगंध
एक हों। जिसका कलेवर तक
उसके न होने पर ही प्रकट
होता हो पुतलियों पर; उसे
जी भर कसने के सभी यत्न
वटपुष्प देखने की इच्छा
सरीखे विफल हैं। तुम्हारे
कंधे पर मेरे काटे का
चिह्न चंद्रमा से दिनों होड़
करेगा। शुध्द सायण गिनकर
बनाया नीमच से प्रकाशित
निर्णयसागर पंचांग तो
मेरे कोई काम का नहीं।
अधिकमास गिनकर त्रयोदश
पौर्णमासियाँ हैं कागदों
में किंतु कला एक भी नहीं।
उस भाँति प्रेम में कवियों के
सब ग्रंथ-पोथियाँ वृथा हैं।
कचूर-हल्दी की तरह लाल।
कठेठ-कठोर।
कठूमर-जंगली गूलर।
कठबंधन-लकड़ी की साँकलें।
दूसरा पाठ : बत्तीस पंक्तियों की अष्टपदी
नाट्यमंडली के संग नित्
देशभ्रमण करते भी जान
न पाई अब तक कि स्त्री को
अपने पंडित का आलिंगन
कैसे करना चाहिए उचित?
अति उत्कंठा से स्तनों का
आगे आगे का भाग लाल
कचूर दाड़िमकुसुमों जैसा
हो जाएगा, कठेठ भी तो
कच्चे कठूमरों जैसा। तब
ऐसे कसूँ ज्यों कठबंधन
कि तुम्हारे कंठ पड़ जाए
काचमणियों के मेरे हार
की छाप या इतनी देर तक—
दोनों के स्वेद की सुगंध
एक हों। जिसका कलेवर तक
उसके न होने पर ही प्रकट
होता हो पुतलियों पर; उसे
जी भर कसने के सभी यत्न
वटपुष्प देखने की इच्छा
सरीखे विफल हैं। तुम्हारे
कंधे पर मेरे काटे का
चिह्न चंद्रमा से दिनों होड़
करेगा। शुध्द सायण गिनकर
बनाया नीमच से प्रकाशित
निर्णयसागर पंचांग तो
मेरे कोई काम का नहीं।
अधिकमास गिनकर त्रयोदश
पौर्णमासियाँ हैं कागदों
में किंतु कला एक भी नहीं।
उस भाँति प्रेम में कवियों के
सब ग्रंथ-पोथियाँ वृथा हैं।
- रचनाकार : अम्बर पांडेय
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.