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बाज़ार में माँ

bazar mein man

रामजी तिवारी

रामजी तिवारी

बाज़ार में माँ

रामजी तिवारी

और अधिकरामजी तिवारी

    अपनी भाषा का नन्हा-सा

    अदना सा शब्द ‘माँ’

    जीवन में उतरते ही फैल जाता है

    आकाश की ऊँचाइयों में,

    रखता है हमारा ख़याल धरती जैसा ही

    सिरजते सँभालते पोसते-पालते

    जब तक हमारी जड़ें

    फैली होती है उसकी गहराइयों में।

    बनना पड़ता है लायक़

    संतान कहलाने के लिए भी तन-मन में,

    कि जिसके आँचल तले पले हैं हम

    थामना पड़ता है उसे भी

    एक दिन अपने जीवन में,

    कि जिसकी छातियों पर खड़े हैं हम

    गर्व से मस्तक उठाए

    उसकी भी होती है जगह

    हमारे उपवन में।

    आह! उठती है टीस

    आत्मा में धसे काँटे से बनी

    गोरखुल के बीचोबीच

    आज ज़माने की चाल देखकर,

    कि बेटों का माँ के लिए

    बुना हुआ शब्दों का जाल देखकर।

    तड़पती है रूह उसकी

    कविताओं के पीछे,

    कहानियों के नीचे।

    चित्रों की ओट में,

    मूर्तियों को गढ़ती

    हथेलियों की चोट में।

    जितने अधिक बेटे

    उतने अधिक गोल बने इस जहान में,

    पास की जाती है माँ उनके बीच

    फुटबाल बनाकर इस आपाधापी के मैदान में।

    ‘चीफ़ की दावत’ का नायक

    सिर धुनता है देखकर

    हमारी कलाबाज़ियों का कारोबार,

    यह कैसा समय है भाई?

    जब ‘चीफ़’ क्या दुनिया को लहालोट करने के लिए

    सज़ा है माँ का बाज़ार।

    कैसे ख़त्म हुआ मेरे भाई

    वो झंझट वो पचड़ा,

    वो कोने में उसको

    छिपाने का लफ़ड़ा।

    बाँटी तो जा सकती है अंत की समझ

    आज भी उस कहानी की,

    किंतु लिखी-समझी जा सकती है कथा

    एक ही बार इस ज़िंदगानी की।

    शब्दों जितनी ही छेंकती है जगह

    माँ हमारे घरों में,

    सटा दो पुस्तकों कलाकृतियों को

    बना दो एक कोना अपने दरों में।

    शब्दों से नहीं बनता है जीवन,

    यह जीवन है जो देता है उन्हें यौवन।

    आसमान की ऊँचाइयाँ नापती

    पतंग को थामे रहती है डोर,

    दुनिया की नज़र से ओझल

    धरती की गुमनामी में छिपी जिसकी छोर।

    जीवन रहित चमड़े का ढोल बनाकर

    किया तो जा सकता है केवल शोर,

    जीवन राग बजाने के लिए

    माँगती हैं साँसें अंतर्मन का ज़ोर।

    ये पुस्तकें ये कलाकृतियाँ

    उनके पीछे पलती अमरता की इच्छा,

    बिला जाएँगी एक दिन

    अंतरिक्ष में गए शब्दों की तरह

    माँ की तलाश में ली जाएगी जब

    तुम्हारे घरों कोने-अँतरों की परीक्षा।

    उस समय के लिए ही सही

    बचाकर तो रखो उसे

    थोड़ी देर सुस्ताने के लिए,

    जैसे जड़ों से उखड़कर अरराकर गिरता है पेड़

    तो आँचल पसारती है वही धरती

    अंतिम प्रयाण से पहले

    उसे विश्राम कराने के लिए।

    स्रोत :
    • रचनाकार : रामजी तिवारी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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