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बाज़ार में अगस्त के आख़िरी सप्ताह की एक शाम

bazar mein august ke akhiri saptah ki ek sham

सिद्धेश्वर सिंह

सिद्धेश्वर सिंह

बाज़ार में अगस्त के आख़िरी सप्ताह की एक शाम

सिद्धेश्वर सिंह

और अधिकसिद्धेश्वर सिंह

    आज दिन भर

    मौसम लगभग साफ़ रहा

    कभी-कभार आते-जाते इतराते रहे

    बारिश के स्वर्ग से बहिष्कृत मेघ

    बाज़ार के बीचोंबीच गुज़रती हुई सड़क के

    आख़िरी छोर पर झाँकता रहा नीला पहाड़।

    अब धुँधलके में समा रहा है बाज़ार

    बिजली हो गई है गुल

    सूरज की अस्ताचली आभा में भी शेष नहीं दम

    आसमान में दीखने लगा होगा

    अष्टमी का अर्धवृत्ताकार चाँद

    पर उसकी उजास को खिलने में लगेगा थोड़ा और वक़्त

    धड़धड़-भड़भड़ कर रहे हैं जनरेटर

    आती-जाती गाड़ियों के आर्केस्ट्रा-कोरस में

    जैसे जुड़ गया है कोई नया वाद्य, नवीन स्वर।

    रोशनी कम है

    पर इतनी भी कम नहीं कि छिप गई हो चमक

    और मद्धिम पड़ गया हो रुआब

    एक से बढ़कर एक करतब दिखा रहा है बाज़ार।

    बिल्कुल साफ़ पढ़ा जा सकता है

    ठेलेवाले के चेहरे पर अचानक उभरा रुआँसापन

    जबकि हँस रहे हैं सेब और अनार

    जगदंबा मिष्ठान भंडार के चबूतरे पर

    शान से इमरतियाँ रचे जा रहा है कारीगर

    कम-ज़्यादा रोशनी से मिठास को फ़र्क़ नहीं पड़ता।

    हाँ, अँधेरे का फ़ायदा उठा

    फलों-तरकारियों को छेद जाते हैं कीड़े

    और क़स्बे के सबसे बड़े रईस के कान में

    गाना गाकर सुरक्षित चला आता है एक बदमाश मच्छर।

    कितना अपना-सा लग रहा है यह दृश्य

    आँख भर देख रहा हूँ रोज़ाना का देखा संसार

    सुना है नदियों में पानी हो गया है कम

    बिजलीघरों तक पहुँच रही है सिल्ट और गाद

    कम हो गया है ऊर्जा का उत्पादन

    सो, चालू हो गई है रोस्टिंग की मार।

    बिजली के लट्टुओं-राडों-सीएफ़लों की जगमगाहट में

    छिप-सी जाती हैं तमाम चीज़ें

    और दीखता है लगभग वही सब

    जिसे कुछ साल पहले तक

    एक साबुन के विज्ञापन में कहा जाता था चमकार।

    यह नीम अँधियारा तो नहीं है

    हाँ, रोशनी ज़रूर हो गई है कम

    बढ़ते बाज़ारभाव की कशमकश में

    अब भी

    बख़ूबी पढ़े जा सकते हैं चेहरों के भाव

    अब भी छुआ जा सकता है एक दूजे का हाथ

    इन बेतरतीब पंक्तियों को पढ़ने वाले

    भले ही हो रहे हों ऊब और उमस से बदहाल

    फिर भी

    क़स्बे के हृदय-स्थल अर्थात मेन चौराहे पर

    अपना पुराना स्कूटर रोक कर

    आँख भर देख रहा हूँ एक बनती हुई दुनिया

    और सोच रहा हूँ अच्छा-सा होगा अगला साल।

    लो गई बिजली

    जगमग-जगमग करने लगा है बाज़ार

    याद आया

    खड़े-खड़े फूँक दिया कितना ईंधन।

    अब घर चलो

    कब की ढल चुकी शाम

    और कितना-कितना बचा है ज़रूरी काम।

    स्रोत :
    • रचनाकार : सिद्धेश्वर सिंह
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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