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बत्तीस

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दर्पण साह

दर्पण साह

बत्तीस

दर्पण साह

और अधिकदर्पण साह

    बस इतनी भर रहें उम्मीदें

    जितनी ज़रूरी हैं

    कोई भी एक दर्द साझा करने के लिए

    जिसमें लॉस वेगस के कैसिनो और घाना की मौतौं में

    बना रहे सांख्यिकी का समभाव

    जिससे सरहदें टूटे

    टूटे तो भी

    मोनालिसा दुनिया के हर कोने से मुस्कुराती दिखे

    वे सही कहते हैं

    विकास गली-गली पहुँचेगा तो रुक जाएगा अंततः

    पर एक मछुवारे के जाल में

    हमेशा फँसती रहें मछलियाँ

    कम से कम कोई एक किताब में मिले हर घर में

    और जो धर्मग्रंथ हो

    हो दोनों वक़्त का भोजन

    आधी से अधिक आबादी के लिए

    पर भूख आधी करे आबादी

    इक इतवार हो

    राजनीति के लाल, हरे और भगवा रंगों का

    पिकनिक स्पॉट की उम्मीद नहीं वियतनाम में

    किंतु उतने ही मूल्य की

    शराब बाँट दी जाए वहाँ

    जितने की ए. के. 47 ख़रीदी जाती रही हैं

    अतीत में

    टूरिज़्म डेस्टिनेशन भी बन पाए

    काबुल

    पर माइंस के लिए

    शहर से कोई अलग जगह निर्धारित हो

    मुझे बताओ

    यदि सारी अंतरंग प्रेम-कविताएँ

    नग्न करके बेच दी जाएँ

    टाइम्स स्क्वायर में

    क्या तब भी नहीं ख़रीदी जा सकती

    कश्मीर की एक

    बूढ़ी

    पोपली

    मुस्कान

    बोलो, उम्मीदों से

    इतना तो किया जा सकता है

    बोलो, उम्मीदों के ख़ातिर

    इतना तो किया जा सकता है न?

    दुनिया की सरहदों की प्रासंगिकता ‘ओलंपिक्स’ के अलावा और कोई नहीं लगती मुझे।

    स्रोत :
    • पुस्तक : लुका-झाँकी (पृष्ठ 18)
    • रचनाकार : दर्पण साह
    • प्रकाशन : हिन्द युग्म
    • संस्करण : 2015

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