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बरामदगी

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वीरू सोनकर

वीरू सोनकर

बरामदगी

वीरू सोनकर

और अधिकवीरू सोनकर

    मैं उन कवियों में था

    जिनके पास बहुत बार कविता के नाम पर बस एक पंक्ति होती

    और होती दोस्तियों के नाम पर बस स्मृतियाँ!

    मैं ज़्यादा शहर नहीं घूमा था

    मेरे पास काव्यपाठों की स्मृतियाँ नही थीं शहरों के नाम थे

    गोया मैं वहाँ गया

    फटाफट कविता पढ़ी और आहिस्ता से एक शहर को घूँट में भर लिया

    मेरे पास दोस्तों के नाम कम थे और सड़कों के नाम अधिक थे

    मैं जिन शहरों में घूमा

    वह सब एक-एक कर स्त्रियों में बदल गए

    जिन शहरों के नाम भर मैंने सुने वे सब स्वप्न में बदले

    मैं गिनतियों में शहरों के नाम गिनता

    और एक-एक करके स्वप्नों को स्त्रियों में बदल देता

    मैं जितने शहर गया मैंने उतनी ही बार प्यार किया

    पहली बार दिल्ली गया तो एक कवि से नफ़रत की

    दूसरी बार गया तो दो कवियों से नफ़रत और एक स्त्री से प्रेम किया

    तीसरी बार जाकर ख़ुद को ख़ूब झाड़ पिलाई

    चौथी बार जाते-जाते नहीं गया

    पाँचवी बार एक पुरस्कार को कसके लात लगाई

    एक बार भोपाल गया तो शहर से दूर जाकर पत्थरों से पानी पूछा

    और कोशिश भर उनके थके पैरों को सहलाया

    और जाना कि 'भारत-भवन' कवियों का मक्का है

    झील को देखकर लगा मानो वह पूछ रही हो, 'कवि जी कितने पानी मे हो?'

    कोलकाता गया एक बार और देखा मैंने

    हर सड़क मुड़ रही थी रंगशालाओ की ओर

    दूर तक जुबानों में टँगे थे टैगोर!

    कुल जमा चार कवि थे हम

    हमारी आवाज़ें वहीं शरतचंद्र के गाँव मे गुम हो गई थीं

    चौबीस परगना को जहाँ चूमती थी हुगली नदी

    उसके एक तरफ़ थोड़े जीर्ण और उदास से बैठे थे बंकिमचंद्र

    हमारी आवाज़ें वहाँ लौटीं

    वहाँ पहली बार हमने बारिश में भीगती एक नदी से बातें कीं

    हम कोलकाता से लौट ही रहे थे कि पूछ लिया उस बहुत बड़े-से शहर ने हमसे :

    मुझे तो कुछ दिया ही नही!

    अब हम तीन अवाक् कवि थे, हम तीन उदास सैलानी भी

    तीनों ही चिंता में पड़ गए और देखा एक दूसरे की ओर

    छोड़ा अपना एक-एक पाँव, वहीं हावड़ा के पास!

    और

    तमाम अर्थों के साथ कहा,

    'चलते हैं हम, लौटते हैं हम!'

    शहरों से ज़्यादा यात्राएँ मेरी स्मृतियों के नाम रही

    मेरे कानों ने शोर से ज़्यादा मेरी ही चीख़ें सुनीं

    मैं बहुत बार एक पहाड़ की तरह चीख़ा, झरने की तरह रोया

    मैं मोमबत्तियों से कई बार बूँद बन कर लुढ़का

    कई बार मैंने एक आकाशीय मौन ओढ़ा

    हवा में नमक फैलाते कई बार रँगे हाथों मैं गिरफ़्तार हुआ

    जमा-तलाशी में मेरे पास कुल तीन चीज़ें बरामद हुईं

    एक अधूरी नींद, एक टूटी हुई पंक्ति

    और मिट चुकी रेखाओं वाला एक नक़्शा

    मेरी पीठ के निशान सबके सामने थे!

    मैंने सबसे कहा,

    मुझे एक घाव खाए आदमी की तरह देखा जाए

    मैं भीड़ के द्वारा आधी चबाई जा चुकी एक देह हूँ

    मुझे जब देखना, आधा देखना

    मेरा आधा, मेरे पूरे पर बहुत भारी बैठता है

    मेरा कहा, बस आधा सुनना

    मेरा आधा कहा, मेरे पूरे कहे से अधिक पवित्र है

    मैं जब बच्चा था, तो आधा ईश्वर था!

    जब आधा प्रौढ़ हुआ तो मैं था पूरी लज्जा से भरा हुआ

    मैं अपने दाह से आधा बचा तो कवि हुआ!

    मैंने पूरे प्रेम के नहीं गीत नहीं गए

    मैंने गाये आधे-अधूरे रह गए प्रेम के गीत!

    मैं जब एक समूची पृथ्वी के पक्ष में हुआ तो एक उदास गीत आधे रास्ते में छूट गया

    मैं एक ठहरी हुई अधूरी कविता हूँ जिसे एक अधूरी सिसकी में चबा लिया गया

    मैं मेरी कविता में आधा कवि और पूरी चालाकी हूँ!

    मुझसे मिलना हो तो याद रखना

    कि कैसे एक बार,

    एक पूरा खो गया कवि

    अपनी अधूरी कविता में बरामद हुआ था!

    स्रोत :
    • रचनाकार : वीरू सोनकर
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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