बार-बार अपनी ओर
खींचता है ध्यान
अपनी चहल-पहल से
सामने फैला बंजर टीला
नित नए रूप में
बेघरों के घर
और भूखों की रोटी के रूप में
कितना उर्वर है यह टीला
कभी ढोलक बेचने वाले
दिन भर गाँव-गाँव, घर-घर घूमकर
बेच आते हैं ढोलक
बदल आते हैं पूड़ा
रस्सी
छल्ले
थके माँदे शाम को लौटकर
पसार लेते हैं अपना गद्दा
खुले आसमान तले
इसी बंजर टीले पर
हाड़तोड़ ठंड की रातों में भी
पोटली की तरह गुड़े-मुड़े हुए
पडे़ दिख जाते हैं
टीले की छाती से चिपके हुए
बारिश की बूँदें छिटाते ही
दौड़ पड़ते हैं
आसपास खड़ी
ऊॅंची-ऊँची इमारतों के
ख़ाली बरामदों की ओर
कभी अपने हाथों के हुनर को
गाँव-गाँव, शहर-शहर घूम
बेचने को अभिशप्त
अपने कुनबे के साथ कंजर
तान लेते हैं अपना टप्पर
टेक कर दो पत्थर
जोत लेते हैं चूल्हा
आस-पास से ढूँढ़ी लकड़ी के सिनकों से
दाल-भात हो या खिचड़ी
या फिर सूखी रोटी
ख़ुशी-ख़ुशी खाते हैं मिल-बाँटकर
आते ही छोटे-छोटे बच्चे उनके
मचाने लगते है ख़ूब धमाल-चौकड़ी
जैसे वर्षों से रह रहे हों यहाँ पर
न कोई नयापन
न कोई अजनबीपन
हुलस पड़ता है टीला उनके आने से
देर रात तक जागता रहता है साथ उनके
पर वह बॅंधते नहीं वे इस टीले के मोह में
चंद दिनों बाद ही
चल पड़ते हैं
किसी दूसरे क़स्बे/शहर को
अपनी गद्दी-गुदड़ी के साथ
टीन-टप्पर और बंबुओं के साथ
छोड़ जाते हैं चुलबुली यादें
बहुत याद आते हैं—
मोल भाव करते उनके छोटे-छोटे बच्चे
एकदम सयाने हो आते उस वक़्त जो।
घरवालियाँ उनकी
बिल्कुल बनावटीपन नहीं
वेशभूषा औ’ बोलीभाषा में जिनकी
उदास हो जाता है टीला भी दिन चार को
छोड़ गए बुझे चूल्हों की तरह
इसी टीले पर बोचड
चराता है बकरियाँ अपनी
करता है हलाल हर रोज़
किनारे पर खड़े
बिजली के खंभे से टाँगकर
उतारता है खाल उनकी
बरस रहा हो पानी
हो रही हो बर्फ़बारी
रूकता नहीं उसका यह सिलसिला
खंभे में बैठ कौए
खुजाते हैं पंख अपने
इसी टीले पर हर रोज़
कुछ बच्चे गाड़ लेते हैं स्टम्प
किसी समतल जगह पर
कुछ और बच्चे
ढूँढ़ते दिखाई देते हैं कबाड़
पीठ में अपने से बडा बोरा लटकाए हुए
घुसे होते हैं कंटीली झाड़ियों में भी
भीतर तक
कबाड़ के छोटे से टुकडें के लिए
चहक पड़ते हैं कबाड़ दिखते ही
इसी टीले पर
देखी जा सकती हैं—
मुहल्ले भर की औरतें
आनंद लेती जाड़ों की गुनगुनी धूप का
बतियाती
खिलखिलाती
अपनी सलाइयों में बुनती धूप को
चूख सानती
और बाँटती मुहल्ले भर को
दूसरे छोर पर एक ग्वालिन
चराती है अपने जानवरों को
ढूँढ़ती है लकड़ियाँ और कंडे
यॅू ही क्रियाओं से हमेशा
भरा रहेगा क्या यह टीला?
डर लगता है देखकर
चारों ओर से बढ़ आ रहे
कंक्रीट के जंगल से।
- रचनाकार : महेश चंद्र पुनेठा
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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