बैठी कौन सरोवर तट पर
baithi kaun sarowar tat par
बैठी कौन सरोवर तट पर?
अति डरावनी, अति भयानक
स्याह रात्रि की आहट में
सोच रही है
वही सरोवर, वही जगह है
फिर क्यों बदल गए हैं जीवन
प्रीत प्यारी क्यों बदली है
बैठी कौन सरोवर तट पर?
पल-पल उठती लहरों के संग
असह्य वेदना और बढ़ाई
'झिलमिल-झिलमिल ज्योत्स्ना में'
थोड़ा-थोड़ा रक्त स्रवित कर
कितने अक्षर चित्रित करती
'प्रीत कुँवारी
रूप कुँवारा प्यारा-प्यारा
अल्हड़ यौवन की मस्ती में
सुंदरता कुछ सकुचाई-सी
हौले-हौले पाँव टिकाकर
पीछे देखे
आगे बढ़ता
भर उड़ान फिर चोरी-चोरी
नीला अंबर छू लेने को।
'मरुआ' की किसी टहनी पर है
तिनका-तिनका चुन के रखा
इंद्रधनुषी झूले में पलते
चाँद-चाँदनी
चंचल नटखट बिजली चमके
रिमझिम-रिमझिम बूँदें टपकें
चिबुक टिकी घुटनों के ऊपर
सिमट जवानी बाँहों में आई
चाहें कुँवारी हृदय कचोटें।
टप-टप टपकें अश्रु-मोती
चूस के रुखसारों की लाली
नटखट पट अधखुली खिड़की के
सुंदरता को झाँक रहे हैं
लपक लपककर
चीर के उसकी कोरी चादर।
श्वेत-श्याम बिखराकर दाग़
सिहर-सिहरकर रह जाती है।
अंतःपीड़ा की व्याकुलता
बैठी कौन सरोवर तट पर?
टुकुर-टुकुर कर देख रही है
लहरों से लहरों की मूरत
परछाइयों के खेल में डूबी
परछाइयों के चित्र देखकर
पल-पल सोचे
काहे को ये हंस बेचारे
परछाइयों के खेल में डूबे
क्यों न पावन प्रीत जगाते
काहे को ये अधर हवस के
काहे को यह भरम सुहाने
छल करके है यौवन लूटे
बूँद-बूँद पीने को आतुर
पावन श्रेष्ठ ये हंस सयाने
बैठी कौन सरोवर तट पर?
रिसते ज़ख़्मों की भट्ठी में
घोर उदासी ढूँढ़ रही है
आशा से आशा की गर्मी
सर्दी वाले इस मौसम में
अधरों पर चुप्पी को ओढ़े
मरियल-सी है प्रीत बेचारी।
पतझड़ के किसी पते पर है
'मृगतृष्णा की जोत चमकती'
भयानक बंजर खेत देखकर
परछाइयों के खेल में डूबी
भ्रम सुहाने पल-पल पाले
गहरे काले अँधियारे में
बार-बार होंठ चबाती
बैठी कौन सरोवर तट पर?
रूप सजा अलकें बिखराए
स्याह काली इस भीड़ के अंदर
युग-युग से है प्रतीक्षा में
सुनने को संगीत अमर वह
पलभर में ही छला है जिसने
बेध के आँखों से आँखों को
निर्मल उज्ज्वल गोरा यौवन।”
न जाने किस देश का पंछी
जाने कहाँ उड़ान भर गया
सखियों तुम कुछ बतलाओ
नाम नहीं मैं उसका जानूँ
उसका नाम पुकारूँ कैसे
कमसिन-कमसिन बाली उमरिया
कैसे देश-विदेश में जाऊँ
बैठी कौन सरोवर तट पर
पवन झकोरों की आहट में
शोर मचाती लहरों के संग
अश्रुजल से भरी पिटारी
मिन्नत करती करे ख़ुशामद
मस्त हवाओं से कुछ पूछे
मस्त हवाओं से कुछ पूछे
मस्त हवाओं को कुछ देकर।
यौवन की पहली ग़लती में
अपना वह सर्वस्व लुटाकर
पल-पल बैठी है पछताए।
कोई कहे है डायन इसको
जन्म समय ही माँ को खाया
बड़ी हुई तो बाप को निगला
कितने घर बरबाद किए हैं।
नहीं इतना ही ब्याही जब यह
इस मनहूस ने पति खा लिया?
देह जब इसकी जर्जर होगी
देखना इसको पड़ेंगे कीड़े
इसका बुरा हाल है होना
कोई कहता है जोगन यह
सिद्धि करते पगलाई है
कोई कहता हत्यादोष है
यह हत्यारी युगों-युगों की?
चाहो जो भी इसको कह लो
जितने चाहे पत्थर मारो
चाहे नाम अनेकों रख ले
यौवन की पहली ग़लती के।
परी न समझे कोई मन की।
रीत प्यार की कोई न जाने।
अति डरावनी अति भयानक
स्याह रात्रि की आहट में
बैठी कौन सरोवर तट पर
सोच रही है
वही सरोवर, वही जगह है
फिर क्यों बदल गए हैं जीवन
प्रीत प्यारी क्यों बदली है?
- पुस्तक : आधुनिक डोगरी कविता चयनिका (पृष्ठ 164)
- संपादक : ओम गोस्वामी
- रचनाकार : अभिशाप
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2006
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