भारत में बसता है
एक बहिष्कृत भारत!
वर्णभेद का भोग बने अस्पृश्य
आज भी जीते हैं
गाँव के सीमांत पर
वर्ण और वर्ग के पूर्वाग्रहों को ख़त्म किए बिना
अम्बेडकर की कल्पना के
समाज का निर्माण
कभी नहीं होगा,
दीमक की तरह फैल गई है वर्णव्यवस्था,
सामाजिक समरसता का नाश करने वाला
यही है सबसे प्रमुख परिबल
आतंकवाद के अजगर से भी भयानक,
डायनोसोर तो इसके सामने बच्चा है!
कौन कसेगा नकेल इसकी?
कब मिलेगी मुक्ति इस विडंबना से?
तथाकथित सवर्णों के यदि
आचरण और विचार एक जैसे हों
उनकी नीति शुद्ध हो
अरे! उनमें चींटी की टाँग जितनी भी मानवता बची हो,
तो यह दुर्दशा न होगी अस्पृश्यों की!
उनकी यह करुण स्थिति देखकर
क्यों द्रवित नहीं हो उठता उच्च समाज?
कुत्ते, बिल्ली, भेड़-बकरी
और तोते जैसे पशु-पक्षी पालने वाले
कबूतरों को ज्वार खिलाने वाले
गायों को चारा देने वाले
क्या कभी माँगते हैं अपने भगवान से
अस्पृश्यता के नेस्तोनाबूद हो जाने का वचन?
प्रार्थना और गीत तो गाते हैं
भेदभाव रहित समाज के
सर्वधर्म समभाव के
लेकिन,
प्रार्थना पूरी होते ही
बन जाते हैं वर्णयुक्त अमानवी!
- पुस्तक : गुजराती दलित कविता (पृष्ठ 144)
- संपादक : अनुवाद एवं संपादन : मालिनी गौतम
- रचनाकार : पथिक परमार
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2022
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