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अयोध्या में प्रेम

ayodhya mein prem

विशाल श्रीवास्तव

विशाल श्रीवास्तव

अयोध्या में प्रेम

विशाल श्रीवास्तव

और अधिकविशाल श्रीवास्तव

    सरयू तट की घास पर बैठे हुए हैं हम

    इस शालीन दोपहर में जब

    और धूप का एक शिशु टुकड़ा

    नरमाई से खेल रहा है तुम्हारी पीठ के साथ

    ठीक उसी वक़्त

    मैं यह सोचना शुरू करता हूँ कि

    यह हवा जिसमें हम साँस ले रहे हैं

    क्या हमें इतनी इजाज़त देगी

    कि प्रेम करते हुए हम

    सहजता से जीवित रह सकें इस शहर में

    इतिहास का अभ्यारण्य नहीं है यह शहर

    और भले ही इसकी आत्मा में कलुष की कमी हो

    कमर तक कीचड़ में डूबे हों इसके नाम के हिज्जे

    या फिर यहाँ से उछाले गए किसी नारे की गूँज से

    साबरमती के तट पर हो सकता हो

    किसी स्त्री का गर्भपात

    विलाप के पार्श्वसंगीत में डूबा हुआ यह शहर

    शुचितापूर्ण नैतिकता का

    मंत्रोच्चार तो कर ही सकता है

    तुम ही बताओ

    कैसे किया जा सकता है अयोध्या में प्रेम

    जबकि ठीक उसी समय

    जब मैं तुम्हें चूमना चाहता हूँ

    किसी धार्मिक तलघर से एक स्त्री की चीख़ उठती है

    रखना चाहता हूँ अपना गरम हाथ

    जब मैं तुम्हारे कंधे पर

    भरोसा दिलाने की कोशिश में

    तो किसी इमारत के गिरने की आवाज़

    तोड़ देती है हाथों का साहस

    और वे काँप कर रह जाते हैं

    तुम्हारी देहगंध को पहचानने

    और याद रखने की कोशिश में

    मैं विक्षिप्त-सा हो जाता हूँ

    और मेरे नथुने सुन्न हो जाते हैं

    धूप, धुएँ और बजबजाते सीवर की

    मिली-जुली सड़ांध से

    ऐसे ही किसी क्षण में लगता है

    यह सड़न बस गई है हमारे भीतर भी

    और तुम जानती हो कि

    लड़ते हुए तो किया जा सकता है प्रेम

    सड़ते हुए ऐसा करना संभव नहीं

    और कितना अजीब लगता है

    रसिक परंपरा का पोषक कहलाने वाला यह शहर

    कितनी अरसिकता से भरा है

    अयोध्या में प्रेम करना प्रतिबंधित है

    नफ़रत करने के लिए यहाँ तमाम विकल्प हैं

    स्रोत :
    • पुस्तक : पीली रोशनी से भरा काग़ज़ (पृष्ठ 108)
    • रचनाकार : विशाल श्रीवास्तव
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2016

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