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अनुवाद : शंकर लाल पुरोहित

ममता दाश

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ममता दाश

और अधिकममता दाश

    इस बेमौसम का क़सूर क्या?

    मैं स्वयं बुला लाई थी तुम्हारे लिए सिर्फ़।

    वरना वह क्या आता?

    अतीत ने मेरी तो कोई ज़मीन छुई नहीं।

    सिर्फ़ तुम्हारे लिए

    उसने मेरी दग्ध कल्पना के मशान को

    चारों ओर घेरे रहने को बिठाया

    मेरी हड्डियों के द्वार पर

    लाल-लाल अँगूठी प्रतिश्रुति उनकी लाजभरी आशा में।

    मेरे प्राणों की विराट मरुभूमि को

    भिगोया रंगीन फुहारों में,

    अपने समय के एक-एक पल को कहा—

    सर्वोत्तम सपने और जादुई खेल में

    भर दो इस राज्य के इस छोर से उस छोर तक।

    उसने सजाकर मुझे

    फूल वेदी पर बिठाया, मेरे स्पर्श में किया भिन्न सम्मोहन,

    मुझे पहनाया फूलों का मुकुट,

    फूलों के उजाले में चमचमा दिए

    लताकुंज घिरे सारे स्वागत तोरण।

    उसकी कल्पना के

    अनेक पूर्णिमा समावेश की पहली रात

    आने से पूर्व तुम पँहुच गए,

    व्याप्त हरियाली गा रही संगीत को

    तुरंत स्तब्ध कर दिया,

    कैसी पवित्र तीव्र दृष्टि तुम्हारी!!

    मिटा दिया मेरे अंदर पैदा होते

    कल्लोल को, कामना के, लोभ और प्रेम के,

    जला दी बसंत की उत्तेजना, अहंकार

    अवशिष्ट सारी संभावना उसकी इस जन्म और कई जन्म की।

    मैं कैसे जानती ये सब तुम नहीं समझते,

    ये सब पसंद नहीं तुम्हें?

    जानती तो और कुछ

    उपाय था मेरे पास?

    तुम्हारे योग्य स्वागत हेतु

    मैं तो पृथ्वी से लाई थी

    श्रेष्ठ आडंबर उसका

    बहुमूल्य श्रेष्ठ समय का।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बीसवीं सदी की ओड़िया कविता-यात्रा (पृष्ठ 235)
    • संपादक : शंकरलाल पुरोहित
    • रचनाकार : ममता दाश
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2009

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