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आवाज़ों का वापस लौटना

awazon ka wapas lautna

संजय चतुर्वेदी

संजय चतुर्वेदी

आवाज़ों का वापस लौटना

संजय चतुर्वेदी

और अधिकसंजय चतुर्वेदी

    हम सोफ़िया मॉस्को प्राहा जैसी दिशाओं में गए

    विचार और प्रतिबद्धता का अहद उठाकर

    मौक़ा मिलने पर

    हम ही गए पेरिस आयोवा सूरीनाम

    उड़ान के घंटों और तजुर्बे के ऐतबार से

    जो जहाँ तक जा सकता था

    गया

    जिसे कहते हैं बौद्धिक समाज

    वहाँ फ़िक्सिंग का कुछ ऐसा ही रहा चरित्र

    होशियार की प्रतिबद्धता

    सतत अनिंदिता

    बौद्धिक समाज का चरित्र

    सधे हुए असत्य का काव्य

    ममार जीर्यति

    हमारा मार्क्सवाद भी

    इन्हीं अलौकिक अर्हताओं पर टिका

    अब तो कामयाबी भी ठहर कर हमसे पूछने लगी है

    जहाँ भी जाती हूँ वहीं चले आते हो

    जिसके सामने तुमने इतनी बार कपड़े उतारे हैं

    उसे यह नहीं बताओगे कि दरअस्ल तुम हो कौन

    प्रगतिशीलता में अंतर्निहित है गतिशीलता

    और आज यही एक क्रांतिकारी चीज़ हमारे जीवन में बची है

    हमने कहा था

    बात बोलेगी

    सो बोल रही है

    इब्ने इंशा जिसे मुगल साम्राज्य की कैफ़ियत कहता था

    उसे जीवन में उतारा

    एक भी नमाज़ क़ज़ा नहीं की

    और एक भी मौक़े को ज़िंदा नहीं छोड़ा

    शासकों से संधि की जुगत में लगी

    एलीट स्पेस के लिए सतत प्रार्थी

    एक लोकविरोधी और असुरक्षित होशियारी को

    हमने जनवादी कविता के नेतृत्व पर स्थापित किया

    जो हुआ अपवाद उसे किया किनारे

    मारे नहीं मरा तो उसकी टाँग दी तस्वीर

    अध्यक्ष हुए हम ही उसकी स्मृतियों के

    रास्ते उसके कभी नहीं माने

    रात-दिन के कीर्तन को बहस का नाम देकर

    हमने हर सवाल पर निषेधवादी होने का आरोप लगाया

    और हर तरह लोकवाद का निषेध किया

    सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का निषेध करने की हड़बड़ी में

    हमने देशज उपलब्धियों और र्पूवजों का निषेध किया

    जनता ने किया कृतघ्नता और विस्मृति से इंकार

    हमने उसे संस्कृति से बाहर कर दिया

    आदर्शवाद का मज़ाक़ उड़ाते-उड़ाते

    हमने आदर्शों का मज़ाक़ उड़ाना शुरू कर दिया

    जिन्हें माना जाना चाहिए निर्लज्जता के नए प्रतिमान

    इस निर्जन संस्कृति में

    हर सू दिखाई देते हैं वो जलवागर मुझे

    हमें पता ही नहीं चला था

    या शायद हम सब कुछ जानते थे

    काव्यपाठ से काव्य और पाठ दोनों ही बेदख़ल हो चुके थे

    जिन्हें साहित्यिक कहा जाता हो वे अधिकांश बातें

    जहाँ षड़यंत्रों, सिफ़ारिशों और टेलीफ़ोन से निपट जाती हों

    वहाँ काव्य और पाठ की ज़ुरूरत किसे थी

    उसका कुछ फ़र्नीचर था जो शादियों-बारातों में काम रहा था

    मुट्ठी भर लोगों की एक दूसरे से बार-बार कराने तुड़वाने वाले

    दिलचस्पी लेने वाले हर साधनसंपन्न आदमी को

    वर-वधू का बाप बना चुके थे

    धीरे-धीरे पर्सनल ही होता गया पोलिटिकल

    जिसे चिल्ला-चिल्लाकर

    सती समर्थक और त्रिशूल फेंकने वाला बता रहे थे

    जनता को कर रहे थे सावधान

    एक दिन अचानक पता चला

    वह तो हो गया है मार्क्सवाद के निमित्त

    स्थितियाँ वही थीं

    सिद्धांत वही थे

    वासनाओं के समीकरण बदले थे

    हम सालों से सधे हुए होशियार आधे सच बोलते चले जा रहे थे

    कुछ ख़ुदा लगती भी कहते जो मुसलमाँ होते

    कभी हमने मोहनदास करमचंद को गालियाँ दी थीं

    कि वह बिरला की गोद में बैठा है

    तुलना बेतुकी और घटिया है

    लेकिन अब ज़रा निगाह उठा के देख

    कौन किसकी गोद में बैठा है

    किसका सलाहकार है

    और किसका अध्यक्ष

    क्या उस संगठन ने अपना नाम बदल लिया

    या अपना मेनीफेस्टो बदल लिया

    आलोचना और कविता के गर्भ में

    माफ़िया और काले पैसे का भ्रूण पलने लगा था

    क्या लेखक अपराधों में साझीदार हुए

    कभी हमने इस तरह की आवाज़ें लगाई थीं

    वे आवाज़ें अब वापस लौट रही हैं

    हम एक एसे मोड़ पर आने वाले थे

    जहाँ से मार्क्सवाद भी एक सिनिकल और अराजक विचार दिखाई देने लगे

    या कोई वहशत जिसे पालतू बनाया जाना मज़े के लिए ज़ुरूरी हो गया हो

    वासना की ज़मीन पर ये बातें इतनी सरल और पारदर्शी थीं

    कि इनमें राजनीति और विचार का प्रसंग लाए बिना भी।

    स्रोत :
    • रचनाकार : संजय चतुर्वेदी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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