हम सोफ़िया मॉस्को प्राहा जैसी दिशाओं में गए
विचार और प्रतिबद्धता का अहद उठाकर
मौक़ा मिलने पर
हम ही गए पेरिस आयोवा सूरीनाम
उड़ान के घंटों और तजुर्बे के ऐतबार से
जो जहाँ तक जा सकता था
गया
जिसे कहते हैं बौद्धिक समाज
वहाँ फ़िक्सिंग का कुछ ऐसा ही रहा चरित्र
होशियार की प्रतिबद्धता
सतत अनिंदिता
बौद्धिक समाज का चरित्र
सधे हुए असत्य का काव्य
न ममार न जीर्यति
हमारा मार्क्सवाद भी
इन्हीं अलौकिक अर्हताओं पर टिका
अब तो कामयाबी भी ठहर कर हमसे पूछने लगी है
जहाँ भी जाती हूँ वहीं चले आते हो
जिसके सामने तुमने इतनी बार कपड़े उतारे हैं
उसे यह नहीं बताओगे कि दरअस्ल तुम हो कौन
प्रगतिशीलता में अंतर्निहित है गतिशीलता
और आज यही एक क्रांतिकारी चीज़ हमारे जीवन में बची है
हमने कहा था
बात बोलेगी
सो बोल रही है
इब्ने इंशा जिसे मुगल साम्राज्य की कैफ़ियत कहता था
उसे जीवन में उतारा
एक भी नमाज़ क़ज़ा नहीं की
और एक भी मौक़े को ज़िंदा नहीं छोड़ा
शासकों से संधि की जुगत में लगी
एलीट स्पेस के लिए सतत प्रार्थी
एक लोकविरोधी और असुरक्षित होशियारी को
हमने जनवादी कविता के नेतृत्व पर स्थापित किया
जो हुआ अपवाद उसे किया किनारे
मारे नहीं मरा तो उसकी टाँग दी तस्वीर
अध्यक्ष हुए हम ही उसकी स्मृतियों के
रास्ते उसके कभी नहीं माने
रात-दिन के कीर्तन को बहस का नाम देकर
हमने हर सवाल पर निषेधवादी होने का आरोप लगाया
और हर तरह लोकवाद का निषेध किया
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का निषेध करने की हड़बड़ी में
हमने देशज उपलब्धियों और र्पूवजों का निषेध किया
जनता ने किया कृतघ्नता और विस्मृति से इंकार
हमने उसे संस्कृति से बाहर कर दिया
आदर्शवाद का मज़ाक़ उड़ाते-उड़ाते
हमने आदर्शों का मज़ाक़ उड़ाना शुरू कर दिया
जिन्हें माना जाना चाहिए निर्लज्जता के नए प्रतिमान
इस निर्जन संस्कृति में
हर सू दिखाई देते हैं वो जलवागर मुझे
हमें पता ही नहीं चला था
या शायद हम सब कुछ जानते थे
काव्यपाठ से काव्य और पाठ दोनों ही बेदख़ल हो चुके थे
जिन्हें साहित्यिक कहा जाता हो वे अधिकांश बातें
जहाँ षड़यंत्रों, सिफ़ारिशों और टेलीफ़ोन से निपट जाती हों
वहाँ काव्य और पाठ की ज़ुरूरत किसे थी
उसका कुछ फ़र्नीचर था जो शादियों-बारातों में काम आ रहा था
मुट्ठी भर लोगों की एक दूसरे से बार-बार कराने तुड़वाने वाले
दिलचस्पी लेने वाले हर साधनसंपन्न आदमी को
वर-वधू का बाप बना चुके थे
धीरे-धीरे पर्सनल ही होता गया पोलिटिकल
जिसे चिल्ला-चिल्लाकर
सती समर्थक और त्रिशूल फेंकने वाला बता रहे थे
जनता को कर रहे थे सावधान
एक दिन अचानक पता चला
वह तो हो गया है मार्क्सवाद के निमित्त
स्थितियाँ वही थीं
सिद्धांत वही थे
वासनाओं के समीकरण बदले थे
हम सालों से सधे हुए होशियार आधे सच बोलते चले जा रहे थे
कुछ ख़ुदा लगती भी कहते जो मुसलमाँ होते
कभी हमने मोहनदास करमचंद को गालियाँ दी थीं
कि वह बिरला की गोद में बैठा है
तुलना बेतुकी और घटिया है
लेकिन अब ज़रा निगाह उठा के देख
कौन किसकी गोद में बैठा है
किसका सलाहकार है
और किसका अध्यक्ष
क्या उस संगठन ने अपना नाम बदल लिया
या अपना मेनीफेस्टो बदल लिया
आलोचना और कविता के गर्भ में
माफ़िया और काले पैसे का भ्रूण पलने लगा था
क्या लेखक अपराधों में साझीदार हुए
कभी हमने इस तरह की आवाज़ें लगाई थीं
वे आवाज़ें अब वापस लौट रही हैं
हम एक एसे मोड़ पर आने वाले थे
जहाँ से मार्क्सवाद भी एक सिनिकल और अराजक विचार दिखाई देने लगे
या कोई वहशत जिसे पालतू बनाया जाना मज़े के लिए ज़ुरूरी हो गया हो
वासना की ज़मीन पर ये बातें इतनी सरल और पारदर्शी थीं
कि इनमें राजनीति और विचार का प्रसंग लाए बिना भी।
- रचनाकार : संजय चतुर्वेदी
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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