रात्रि की आड़ में
बस्ती को आग में झोंक देने वाले
सुबह मना रहे हैं मातम छाती पीटकर
हो सकते हैं वे शायद बस्ती से ही निकले ग़द्दार
या किराए के ग़ुंडे
राख की धूसर पपड़ी से ढँके
अंगारों के नीचे
अभी भी धधक रही है बस्ती की आग
जल चुकी हैं झुग्गियाँ
दरवाज़े
आँगन
रास्ते और गलियाँ
बस्ती
जली है पर नहीं हुई है ख़ाक
गई है जान पर मरी नहीं है
अधजले विद्रूप प्रेत-सा
चिथड़े-चिथड़े होकर लटक रहा है
बस्ती का लोथड़ा बना टुकड़ा
उसके भूगोलीय सांस्कृतिक जैविक अवशेषों के साथ
बस्ती बिछाती है ख़ुद को
तुम्हारे नीचे
तब क़तई नहीं होती है वह
एक रात की हमबिस्तर बाज़ारू औरत
खड़े करती है वह तुम्हारे घर
किसी कुलीन स्त्री की तरह
सजाती है माँग में तुम्हारे आते-जाते क़दमों की धूल
सहेजती है अपनी गोद
कंधे पर तुम्हारे जने हुए
बाल-बच्चों का क़बीला
तुम्हारे उठने पर जगती है वह
सोने पर ऊँघ लेती है वह भी
तुम्हारे न होने से उचाट-सी होती है
न हो वह शायद सीधे तुम्हारे अपने कुनबे में शामिल
पर तुम्हारे और उसके बीच बहता है
कोई एक कपड़छान आदिम बंध
जिसे नहीं नकार सकता कोई भी इतिहास या परंपरा
बेशक आप कर सकते हैं इनकार
होकर बेईमान फिर से अँधेरे की आड़ में
जला सकते हैं उसकी रही-सही निशानियों को
पर अवशेषों के जलने के बावजूद
शेष रहेंगे जो अवशेष
यहाँ पर कभी ख़ुशहाली से जीती बस्ती के
उसका क्या करोगे आप?
- पुस्तक : सदानीरा
- संपादक : अविनाश मिश्र
- रचनाकार : सुचिता खल्लाळ
- प्रकाशन : सदानीरा पत्रिका
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