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औरत के बग़ैर

aurat ke baghair

वीरू सोनकर

वीरू सोनकर

औरत के बग़ैर

वीरू सोनकर

और अधिकवीरू सोनकर

    दुनिया के सारे सूप मिथक में बदल गए हैं

    सारी चक्कियाँ दिन की तरह बहुत भारी चलने लगीं

    अब बलखाया मोड़ नहीं काट रही कोई भी नदी

    घरों की दीवारें पपड़ियाँ छोड़ रही हैं

    बच्चे सीख ही नहीं पा रहे ठीक से नींद लेना

    और आदमी तो भूल ही गया है ठीक से जागना भी

    एक औरत के बग़ैर

    यह आकाश सूखे बादलों का सिर्फ़ एक झुंड है

    औरतें जाने से पहले, प्रार्थनाओं का फैला हुआ सारा रहस्य उतार ले गई हैं आकाश से

    अलमारियों की गुप्त-गुहाओं में जमा था जितना भी भरोसा

    ये औरतें सब ख़र्च कर गई हैं

    इस दुनिया को चाहिए

    कि जल्द से जल्द ठीक से सुनना सीख ले

    और सोना भी

    एक औरत तुमसे क्या माँगती थी?

    वह तुम इन दो चीज़ों से जान लोगे

    तीसरी चीज़ तुम्हारी हदों से बाहर की बात है।

    वह है औरत होना

    इस दुनिया के भीतर 'रहस्य' की साँसें भरना

    और अपने होने का एक भरोसा देना

    एक औरत के बिना इस दुनिया को देखो

    और उस तीसरी चीज़ को महसूस करो

    तुम्हें जैसे ही थोड़ी शर्म आएगी

    गई हुई औरत इस पृथ्वी पर लौट आएगी

    एक ताज़ातरीन सुबह और बेसुध नींद के साथ!

    स्रोत :
    • रचनाकार : वीरू सोनकर
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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