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अट्ठाईसवीं सीढ़ी पर हत्या

atthaiswin siDhi par hattya

श्याम परमार

श्याम परमार

अट्ठाईसवीं सीढ़ी पर हत्या

श्याम परमार

और अधिकश्याम परमार

    एक और चेहरा उसके बृहत् चेहरे में प्रविष्ट कर गया

    बढ़े हुए नाख़ूनों ने उस चेहरे का कुछ रोग़न

    तेज़ी से खरोंच डाला

    आँखों में रुके हुए प्रतिहिंसा के पानी को

    रक़ाबियों में गिराकर

    वह उदास मन कविता की सातवीं सीढ़ी पर बैठ गया

    कुछ सोचता हुआ

    पैरों की गली हुई उँगलियाँ चबाने लगा

    उसे ख़याल आया : नाख़ून बहुत पैने हैं

    लेकिन छाती में दर्द है,

    और बालों की जगह कीलें उग आई हैं

    आँखों के पास बहुत से हाथ

    हाथों के साथ उनकी बहुत-सी उँगलियाँ

    उसका माथा छू रही हैं...

    यकायक उसे लगा नाख़ून काम नहीं करते

    उनकी तेज़ी पिघल रही है

    चेहरे पर प्लास्टिक का एक दूसरा चेहरा

    उसने महसूस किया

    घबराकर कुचली हुई टाँगों से वह

    इक्कीसवीं सीढ़ी तक रेंग गया

    जहाँ उसने घिसी हुई उँगलियों से

    मोम की परतें खुरचकर देखा

    अट्ठाईसवीं सीढ़ी पर उसका एक अन्य शरीर खड़ा है...

    वह हतप्रभ हुआ

    और दूसरे ही क्षण उसका ख़ून करने के लिए व्यग्र हो उठा

    मुट्ठियाँ कस गई, और उसकी उँगलियों की पकड़ में

    एक चमकता हुआ छुरा गया

    बहुत से हाथों ने उसे हत्या के लिए

    बहुत से चाक़ू प्रस्तुत किए...

    फिर भी उसकी हिम्मत हुई

    डरकर उसने अपनी पीठ फेर ली

    और सातवीं सीढ़ी की तरफ़ देखने लगा

    जो खंडित हो चुकी थी

    चौदहवीं सीढ़ी तक का प्लास्तर उखड़ गया था

    और जहाँ वह खड़ा था वह स्थान काँप रहा था

    उसने बढ़े हुए हाथों में से एक नन्हे हाथ को

    अपनी पीठ पर ले लिया

    खेलने के लिए उसे अपना छुरा दे दिया

    उसने फिर अपने ओंठ काटे

    बाईस, तेईस, चौबीस...उलटे पैरों वह ऊपर की तरफ़ जाने लगा

    पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस...और यह अट्ठाईसवीं सीढ़ी

    T T T T T

    सिर्फ़ उसने एक चीख़ सुनी...

    ख़ून! किसका ख़ून? किसी ने पूछा

    वह काँपने लगा

    सीढ़ियों पर गर्म रक्त की धारा में

    उसकी पगथलियाँ भीग गईं

    एक क्षण मुड़कर उसने उधर देखा

    लहू भरे घाव, टूटा जबड़ा, काली उँगलियाँ,

    धब्बे…और विस्फारित आँखों में फटा हुआ नीला मौन

    वहाँ उसका शरीर नहीं

    कविता का कटा हुआ धड़ पड़ा था

    नन्हे हाथ में थमाए हुए छुरे की रक्त डूबी नोक

    अब उसे ताक रही थी...

    कविता की एक और हत्या करने के बाद वह हँसा

    क्योंकि ख़ून उसने नहीं, नन्हे हाथ ने किया था

    संतुष्ट चेहरे पर एक और चेहरा लगाकर

    आहिस्ते-आहिस्ते

    ख़ून के पद-चिह्न बनाता

    अट्ठाईसवीं सीढ़ी से वह नीचे उतरने लगा

    सत्ताईस, छब्बीस, पच्चीस, चौबीस...

    स्रोत :
    • पुस्तक : विजप (पृष्ठ 97)
    • रचनाकार : श्याम परमार
    • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
    • संस्करण : 1967

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