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आत्मबोध के बाद विकास के लिए लिखे गए कुछ वाक्य

atmabodh ke baad wikas ke liye likhe gaye kuch waky

उपांशु

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आत्मबोध के बाद विकास के लिए लिखे गए कुछ वाक्य

उपांशु

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    इंसान बनने से पहले आप सीख ही जाते हैं

    कि आँखें मूँदकर

    और सिर झुका कर जीना

    कितना महत्त्वपूर्ण है। आदमी बनने से पहले आप

    महसूस कर लेते हैं अपनी नसों में

    एक अदृश्य सामाजिक शक्ति का प्रवाह

    और जब प्रेम के नाम पर

    इन शक्तियों की दासी बनना सीखने लगती हैं तब

    आप अच्छी (क्योंकि आदमी की तरह

    औरत शब्द में अच्छाई का कोई अव्यक्त अर्थ नहीं होता)

    औरत कहीं जाती हैं।

    सभ्यता, जिसे देखने के आदी हो चुके हैं

    अब तक हम, विकसित होना कहती है उन वाक़यों को

    जिसमें बिलखना क्षण भर के लिए ही सही कर्णप्रिय हो जाता है

    और आक्रामकता आवश्यकता

    (कि धूप बग़ैर ऊष्मता के महसूस की गई है क्या कभी)

    ताकि आवाज़ें सुनी भी जाएँ तो फ़तह के बाद जयघोष की ही। विकास का पैमाना,

    फ़ुटपाथ पर खड़े हो जाने के बाद,

    एक ही समझ आता है किसी भी मुसाफ़िर को :

    समानता।

    दो विकसित शहर कभी भिन्न नहीं हो सकते।

    कोलाहल की भी एक संस्कृति बन जाती है, जिसे आम मानकर रोज़

    जी लिया जाता है। और किस तरह का व्यवहार

    किया ही जा सकता है संस्कृति के साथ?

    निरुत्तर हो जाती है कल्पना मेरी

    जब अपने पतियों की चिता पर

    जलाई गईं औरतों के चेहरे का भाव

    उकेर नहीं पाता इतिहास। क्या किया जाए

    जब अपने पैरों के निशान सड़कों से झाड़ फेरने वाले

    पसीने की बूँदों की छाप मिट्टी पर भूल जाते थे

    और ख़ूबसूरती के दिखावे करती संस्कृति

    उनके भयाक्रांत चेहरों की छवि मेरी आत्मा पर नहीं उतार पाती।

    नहीं रखा जाना चाहिए याद

    इतिहास को जयों-पराजयों की गाथाओं के लिए,

    नायकों, नायिकाओं के लिए या अत्याचारों

    और उनके ख़िलाफ़ उठती आवाज़ों के लिए ही।

    क्योंकि ऐसी स्थिति में केवल विकास ही देखता है आदमी,

    बीते हुए समय की तुलना में,

    जयघोष ही सुन पाती है

    पाक गृह में उँगलियों पर तवे के निशान गिनती पत्नियाँ

    और बीट ही पोंछता रह जाता है

    नायक के पुतले पर से उसकी जाति का

    व्यक्ति पसीने से भीगे अपने पोंछे से।

    याद रखा जाए ताकि महसूस किया जा सके

    बग़ैर निष्पक्ष विचारों के

    हर उस अन्याय को

    कि अन्याय के समक्ष निष्पक्षता के अभाव में ही संभव है

    एहसास की जागृति। अन्याय के सभी प्रकरणों के ख़िलाफ़

    और उसकी स्मृति के सामने

    पक्ष लेना निश्चित हो जाना चाहिए

    ताकि एक ही तरह के पेड़ की छवि का आदी हो जाए

    फ़ुटपाथ पर मुसाफ़िर। क्योंकि विचार भी

    निष्पक्षता में तथ्यहीन और अर्थहीन

    केवल एक वस्तु बनकर रह जाता है,

    कमरों में सजाकर रखने के लिए इंसानियत की तरह ही।

    स्रोत :
    • रचनाकार : उपांशु
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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