कुछ तो है कहीं कोई न कोई कुछ
बार-बार बुलाता है
धुरी की तरफ़ खींचता हुआ
एक कोई आईना
दिगंत में अनंत
साफ़-शफ़्फ़ाफ़
दमकता-दमकाता हुआ
अपना आप दिखाता हुआ
पहचान नहीं पाते हो
अलग बात है
सृष्टि के पता नहीं किन अँधेरे कोनों से
रोशनी की किरणों-सा रूपमय होकर
सूरज की देह में बलता और तपता हुआ
सब कुछ राख करता हुआ भीतर उतरता है
इश्क़ के फ़र्यादी तौहीद माँगते हैं
बजरे के तूफ़ान उमड़ने लगते हैं
घोड़ा कोई सफ़ेद
दौड़ता है चारों दिशाओं में
आकाश में उड़ता है
भागते हो तुम लेकिन
जिस किसी दिशा में
ग़र्क़ होते बाहर
भीतर इमारतों के
छटपटाते ज़ख़्मी
मर-मर कर जीते हुए
जीते न मरते हुए
लाशों के बीच
नील पंछी रोता है जब
मोर की आत्मा
पतित
शैतान से संधियाँ करती हुई
ख़लाओं में भटकती है
तोते की तरह कोई तोता रटंत
शाश्वतता के झरने तलाश करता हुआ
पंछियों की महफ़िल से बाहर निकल जाता है...
ख़ून ही ख़ून होकर ख़ून
ख़ून करता हुआ
मन हत्यारा
फिर जग
हत्यारा...!
- रचनाकार : अतुलवीर अरोड़ा
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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