अत: पहचानता हूँ मैं पीड़ा ज़िंदगी की
atah pahchanta hoon main piDa zindagi ki
वीरभद्र कार्कीढोली
Virbhadra Karkidholi
अत: पहचानता हूँ मैं पीड़ा ज़िंदगी की
atah pahchanta hoon main piDa zindagi ki
Virbhadra Karkidholi
वीरभद्र कार्कीढोली
और अधिकवीरभद्र कार्कीढोली
समझ सकता हूँ मैं पीड़ा ज़िंदगी की
पीड़ित था मैं भी
समझ सकता हूँ मर्म आँसुओं का
यूँ तो मैं भी मछली हूँ, आँसुओं के भीतर की
फिर भी ज़िंदगी को
पीड़ा समझता नहीं हूँ मैं।
यूँ तो कहने का साहस करता हूँ।
सहना होगा हमें, पीड़ा ज़िंदगी की
ज़िंदगी की दौड़ में।
प्रायः मिलता हूँ उस आदमी से
तुम्हारा अपना होगा
उस किनारे पर खड़ा वह
वह प्यास मिटाने आता है सदा
सिर्फ़ वहीं आता है।
और उजाला रहने तक देखता है पानी को
मैला, मटमैला और स्वच्छ बहता हुआ
बस, वह प्यासे ही लौटता है!
उससे भी पूछना है
अर्थ पीड़ा का, प्यास का।
नहीं पूछें क्यों?
पानी के अंदर खेल रही मछली को
अनुभव नहीं होता
किनारे पर तड़पने की अवस्था का।
ज़िंदगी की हर ऊँची-नीची स्थिति से
वाक़िफ़ हूँ मैं भी
ज़िंदगी ढोते, सुस्ताते
ज़िंदगी फिर ढोते चलने वाला
आदमी हूँ मैं
ज़िंदगी को पर
बोझ होने का ऐलान नहीं किया है मैंने
ज़िंदगी को पीते रिक्त करते
भरते-पीते बहकता आदमी हूँ मैं
ज़िंदगी को कभी
शराब नहीं कहा है मैंने
अतः पहचानता हूँ चेहरा ज़िंदगी का
समझता हूँ अर्थ ज़िंदगी का
समझता हूँ मर्म आँसुओं का
पीड़ा का आदमी प्यास का!
- पुस्तक : इस शहर में तुम्हें याद कर (पृष्ठ 84)
- रचनाकार : वीरभद्र कार्कीढोली
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
- संस्करण : 2016
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