अस्सी घाट का बाँसुरी वाला
assi ghaat ka bansuri vala
इसे कहीं से भी शुरू किया जा सकता है
बनारस के अस्सी घाट की पार्किंग से लेकर
साइबेरिया से आए पक्षियों, अलमस्त फिरंगियों
टूटी सड़कों, बेजान रिक्शो, छोटी बड़ी नावों
कार का शीशा, ठकठकाते नंग-धड़ंग बच्चों
इसे कहीं से शुरू
कहीं बीच मंझधार ले जाया जा सकता है।
तभी बीच कोई बाँसुरी बजाता है
छोटी-सी सुरीली तान
बजाता, फिर रुक जाता
अपने मोटे बाँस पर टंगी
बाँसुरियों को ठीक करने लगता।
कद मद्धम, उम्र अधेड़
लाल टीका, सादे कपड़े
पर आँखों में जगती-बुझती चमक
आँखे बंदकर तान लगता
फिर आते-जाते को
उम्मीद से तकने लगता
बाज़ार, रास्ते, रिक्शे
साईकल, दुकानें, सब अपने में मग्न
बेसुरे मंत्र, तीख़े हॉर्न, कर देते हर तान-बेतान।
फिर शायद उसे लगा कोई नहीं सुनेगा
वो सारी हिम्मत इकट्ठी कर
चौराहे पर आ गया
और बेधड़क कुछ बजाने लगा
आँखे बंद कर ध्यान धरे था
अरे! ये तो आरती थी
मात-पिता तुम मेरे शरण पडू मैं किसकी
स्वामी शरण पडू मैं किसकी।”
यकायक उसने अपनी सारी ताक़त झौंक दी
तान ऊँची कर दी, भाव लरजने लगे
फूँक दिल से निकली
बाँसुरी बजने नहीं, बोलने गाने लगी
अब ये साधारण आरती नहीं थी
मजबूरी और शिकायत से उसने फिर गाया
शरण पडू मैं किसकी
स्वामी शरण पडू मैं किसकी”
वो बाँसुरी बजाते-बजाते
झूमने और गोल-गोल घूमने लगा
जैसे उसने सिर पे कोई पर्वत उठा लिया
और घूमने-झूमने लगा
मरती गंगा, बेसुरे मंत्र
अलमस्त फिरंगी, नंग धड़ंग बच्चे
सब उसके साथ-साथ
झूमने और घूमने लगे
आरती क्राँति-गीत में बदल गयी
वो ईश्वर से आँखें मिलाने लगा
सीधे-सीधे टेढ़े सवाल पूछने लगा
बिजली कड़की, गंगा उजियारी हो गई
बादल गड़गड़ाए, मंत्र सुरीले हो गए
पानी बरसा, नंग धडंग बच्चे गोरे चिट्टे हो गए
अलमस्त फिरंगी निर्वाण पा गए
बेजान रास्ते, पान के खोखे सज संवर गए
तभी क्राँति गीत ख़त्म हो गया
कहीं कुछ ना बदला
सब वैसा ही था
उसने चुपचाप बाँसुरी मोटे बाँस में खोंसी
और कंधे पर सलीब लादे घर वापस चल पड़ा।
आज भी दो-चार बांसुरियाँ ही बिकी थी
वो आज भी आधा ख़ुश
आधा उदास था
उसे किसी इंकलाब की ख़बर ना थी
बस मैं मन मसोसे चुपचाप खड़ा था
कि आज फिर क्राँति हो नहीं पाई।
- रचनाकार : तजेंद्र सिंह लूथरा
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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