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आसमान के आँचल में पतंग की तरह टंका है तलघर

asman ke anchal mein patang ki tarah tanka hai talghar

रोहिणी अग्रवाल

रोहिणी अग्रवाल

आसमान के आँचल में पतंग की तरह टंका है तलघर

रोहिणी अग्रवाल

और अधिकरोहिणी अग्रवाल

    मेरे तलघर की सीढियाँ

    जाने किस पाताल में खुलती हैं

    नीम अँधेरे में मूर्च्छित

    मवाद की सीलन में पल-पल भुर-भुराती हैं

    रेंगते हैं तिलचट्टे छिपकलियाँ चूहे

    मशाल की तरह दग्ध करती

    काली बिल्लियों की घूरती आँखें

    थर्राती हैं मुझे।

    उबकाई गटक कर कंठ में

    सीढ़ियों से ही

    थके पैरों लौट आती हूँ सतह पर

    (मनवांछित करने को मिले कुछ

    तो शैया पर लेटे-लेटे भी

    पिराने लगता है बदन बुरी तरह)

    और याद करती हूँ

    बोरियों संदूकचियों गठरियाँ के ढेर में

    क्या-क्या और लुका-छिपा होगा वहाँ

    उस तलघर में

    जहाँ गड़ी है मेरी नाल

    मेरे डर

    मेरे वहम

    और हमशक्ल पुरखिनें मेरी।

    उनींदी पलकों की गहराइयों से

    उमड़ आती हैं यक्षिणी की बाँहें

    खुलने लगती हैं सिरहाने रखी पोटलियाँ

    फिर मिलकर हम दोनों

    टाँक देती हैं तलघर को

    पतंग की तरह

    आसमान के झक नीले आँचल में।

    आसमान की बुलंदियाँ डराती नहीं मुझे

    पुचकार कर दुलार से

    हौसलों को ऊँची परवाज़ देती हैं।

    स्रोत :
    • रचनाकार : रोहिणी अग्रवाल
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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