नहीं याचना मैंने की थी
नहीं कभी कुछ भी चाहा था
किया समर्पित सहज भाव से तुमने जब जो
बस उसको ही स्वीकारा था
बस उतना ही था जो सुख था : उज्ज्वल, सुंदर
अपना
अपने से भी प्रियतर
इसी लिए तो—
भोग्य नहीं माना था उसको : केवल थाती
इसी लिए तो—
अंतिम इस क्षण
तुमको यह उपलब्धि सौंपते
मन में कोई झिझक नहीं है
शेष नहीं है कोई उलझन;
दुख है
लेकिन कब वियुक्त था वह काया से
धूप-लिपी धरती पर चर्चित छायाओं-सा
छायाएँ—जो होती जातीं गहन, दीर्घतर
जैसे-जैसे धूप निखरती, धूप सिमटती...
जाओ, साथी!
पथ पर तुम को—
जावक-अर्पित चरण-तलों की—
रहे देखता यह सुख मेरा
शत-शत शंखपुष्पियों-सा दूबों में खिल कर
धारण करता रहे गर्व से दृढ़ चरणांकन
जाओ, साथी!
शक्ति बने यह—हम दोनों की
वर्षा में कोटर में दुबके आहत खग की अपलक चितवन :
आशिष मेरी!
- पुस्तक : तीसरा सप्तक (पृष्ठ 36)
- संपादक : अज्ञेय
- रचनाकार : प्रयागनारायण त्रिपाठी
- प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
- संस्करण : 2013
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