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अषाढ़ लगते ही मन जोहता है सावन

ashaDh lagte hi man johta hai savan

आकृति विज्ञा 'अर्पण’

आकृति विज्ञा 'अर्पण’

अषाढ़ लगते ही मन जोहता है सावन

आकृति विज्ञा 'अर्पण’

और अधिकआकृति विज्ञा 'अर्पण’

    अषाढ़ लगते ही मन जोहता है सावन 

    जैसे कि लगन की पहली चिरई बोलते ही

    आँगन में पसरने लगती है 

    नवकी पतोह और नवहे दमाद के

    आमद की ख़ुश्बू।

    ससुरा में बीरन के पाँव रखते ही

    उतर आता है सावन 

    लहकती है नीम की डारी

    मेहंदी में लरजती है लालिमा 

    बच्चे साथ लिए आते हैं 

    महतारी का सावन।

    सावन उनके कंधे चढ़कर आता था

    कट गए जो पेड़  

    छूट गए जो लोग 

    निर्दोष निबोले लोग 

    जिनके परान में बसती थी कजरी।

    इतने पेड़ कटे 

    आकर भी पूरा नहीं आएगा सावन 

    हमारा मन हुआ मटमैला

    चाहकर भी नहीं गदराएगी कजरी

    कुप्पी वाली मेहंदी के केमिकल में

    अउंस कर रह गया पत्ता 

    जैसे तुम्हारे विरह में अउंसती है मेरी आत्मा

    बाबा विश्वनाथ जानते हैं मेरे मन की 

    बैठती हूँ जपने एक माला “नमः शिवायोम्”

    सात सौ बार लें लेती हूँ तुम्हारा नाम

    तुम आओगे तब आएगा मेरा सावन

    तब भीजेंगे मेरे प्राण 

    बीज-सी बिखर पढ़ूँगी मैं 

    हर बीये से फूटेगा पौध

    नाचकर फूटेगा भूमि वंदन का वही स्वर

    थेई-थेई तिगदा दिग-दिग थेई

    धरती पर पड़ते ही पाँव 

    ता थेइ-थेइ तत थेइ-थेइ तत

    नाचेगा सावन साथ-साथ मेरे 

    मिटेंगे सारे भेद

    घुमूँगी वाम-दखिन 

    निहारूँगी आकाश-धरती

    नाचेंगे पेड़ झूमेगी प्रकृति 

    दसों दिशाएँ , पुरुवा-पछुआ सब हवाएँ।

    असाढ़ उतर रहा है चढ़ रहा है सावन 

    “अब भी जाओ“

    कि आसमान भर में 

    फैला है मेरा काजर 

    गूँज रही है मिर्जापुरी कजरी 

    “पनवा से पातर भईली तोरी धनिया 

    देहियाँ गलेला जइसे नून…”

    स्रोत :
    • रचनाकार : आकृति विज्ञा 'अर्पण’
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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