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कृपण

kripan

अनुवाद : चक्रेश्वर भट्टाचार्य

प्रफुल्ल भुइयाँ

और अधिकप्रफुल्ल भुइयाँ

    “दिस अर्थ : दैट इज सफिशिएंट”

    तुम मुझे क्षमा करो पृथ्वी

    मैं कृपण हूँ

    तुम्हारे सब-कुछ दान ग्रहण करते हुए भी

    तुमको सचमुच मैं

    प्यार नहीं कर सका,

    यह मेरी अकुंठित स्वीकृति है

    मैं अकृतज्ञ हूँ।

    तुम्हारे आषाढ़ के आँसुओं को देखा उससे

    तुम्हारे बादल के वक्ष में चित्र अंकित किया

    तुम्हारी नदियाँ जीवन-गीति सुनाना चाहती हैं

    जो नियमों में नहीं बोल सकतीं

    तो भी तुम्हारा दान-विपुल स्नेह

    मैं सिर्फ़ अस्वीकार कर आया हूँ

    मैं तो इस पृथ्वी का नहीं हूँ।

    यह नीलाकाश के

    किसी एक अदृश्य देश में

    मानो इंतज़ार कर रही है

    मेरी प्रिया, मेरी ही प्रिया,

    और मेरा घर, मेरा प्रेम।

    ***

    आहूत चैतन्य ने मुझे ला दिया छाया-सा मायामय

    हरियाला चित्र—वह तुम्हारा ही था हे पृथ्वी!

    हरी पृथ्वी का आदिम अरण्य

    मैं उसका आदिम मानव।

    डाइनोसोर के साथ मेरा युद्ध अविराम है,

    (सभ्यता की सृष्टि का संग्राम है)

    हरे-भरे दूर्वादल में मैमय की रक्त-बूँद।

    सभ्यता की अल्पना है।

    मेरा मत्त हुंकार सभ्यता का विजयोल्लास है

    इतिहास का स्वप्न-भंग होता है,

    कहीं से मेरे विक्षिप्त प्राणों में बहकर

    आता है एक सुर, एक वाणी, एक कोमलता,

    दुर्बल दुर्बल, मैं अक्षम हूँ,

    क्लांत है मेरी जीवन की आदिम उग्रता,

    शक्तिहीन है मेरा प्रेम।

    हठात् समझ आया है प्रिया, हे पृथिवी।

    मैं कृपण हूँ

    मैं लोभी महाजन हूँ।

    तुम्हारे रूप से मैं अरूप का विलास कर रहा हूँ

    मेरे मन का मोती छिपाकर

    आकाश की अंतहीन नीलिमा के वक्ष में

    पंगु-कल्पना के स्वर्ग में

    किस एक अदृश्य तारे में,

    जहाँ पृथिवी का स्पर्श नहीं हो।

    हठात् आज समझ लिया

    आज तक जितनी मिलीं ये सिर्फ़

    समुद्र के फेन की एक अंजलि है

    मेरी सीमा के उस पार

    तुम ही विपुला पृथ्वी

    अज्ञात रहस्य

    —मिट्टी का समुद्र।

    क्या मैं मिथ्या कवि हूँ

    पृथ्वी का प्रथम प्रेमिक?

    मुझे माया नहीं मोह नहीं

    नहीं प्रेम, नहीं-नहीं

    उड़ते हुए पक्षी का विश्राम नीड़ नहीं है

    सिर्फ़ आकाश है,

    अंतर का उपगुप्त मरकर भूत हो गया

    दरिद्र-दुखित रोगग्रस्त बोध से

    मैं दूर हट आया

    आकाश के लिए तृषातुर हाथ उठा-उठाकर

    अगर अमृत-मंथन से गरल निकालता

    उसके लिए क्या किया जाए

    अगर मेरी तृषा के लिए आँसू भी नहीं निकालेगी

    स्नेह का समुद्र सूख गया तो।

    प्रेम की जाह्नवी ने आकर जीवन धो दिया

    तो भी क्लेद नहीं हटा

    अमृत-स्पर्श से भी अमर नहीं हुआ

    यही मेरा खेद है।

    स्पर्श-मणि भी मुझको सुनहरा नहीं बना सकी

    मेरी कालिमा से

    सिर्फ़ मणि को कलंकित किया

    मैं अंध हूँ, मैं दस्यु हूँ, मैं लोभी

    मैं कृपण हूँ।

    तो भी दूर से बाँसुरी के सुरों का भास होता रहता है?

    भास होता है, अंतहीन सांत्वना के सुर हैं।

    अथच मानो यह विष है

    यह मेरी आत्मा का अपमान है।

    हे पृथ्वी : एक भूल, पहले एक रोज़, की थी

    एक रोज़ दिया था अंकित मानव-ललाट पर

    कवि की हैसियत से प्रेम का तिलक

    रूप से तुम उसका सरल विश्वास

    अरूप की स्वप्न-पुरी की तरफ़

    खींचने के लिए कोशिश की थी

    तुमने अधर में लगा दी थी स्वर्गीय अतृप्ति।

    आज दुःख की निशा में हे पृथ्वी

    मुझे नीलकंठ बनाओ,

    में इस विष का पान करूँ।

    जब से मिट्टी और आकाश का चिरंतन सिंधु-मंथन

    कह सकते हैं कि तुम्हारा प्रेम मुझे

    तनिक भी दुर्बल नहीं करेगा।

    सिर्फ़ मुझे मुझसे परिचित कराएगा

    हे पृथ्वी, मेरी प्रिया

    तुम मेरी प्रिया

    अथच पृथ्वी

    मैं कृपण है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1953 (पृष्ठ 13)
    • संपादक : विरिंचिकुमार बरुवा द्वारा चयनित
    • रचनाकार : नवकांत बरुवा
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 1956

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