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असम के चाय बगान

asam ke chaay bagaan

लक्ष्मीकांत मुकुल

लक्ष्मीकांत मुकुल

असम के चाय बगान

लक्ष्मीकांत मुकुल

और अधिकलक्ष्मीकांत मुकुल

    तिनसुकिया के हाइवे पर जाते हुए

    दोनों तरफ़ बघरेड़ा के सघन वन-सा 

    मिलते हैं चाय बगान 

    बीच-बीच में बनी-ठनी दुल्हन-सी सँवारे 

    काठ के घर टीन से छाए, बाड़ से सजाए

    सुपारी के लंबे पेड़, बाँसों की झाड़

    उँची-ढलाऊ ज़मीन लगाई ये चाय की ठिगनी झाड़ियाँ चुंबक

    की तरह खींच लेती है सबका ध्यान

    सौ बरस तक ज़िंदा रहने वाला यह पौधा

    सब्ज़बाज़ तलबगार पत्तियों से भरा

    ख़ुशबू रग-पत्रों में उमड़ता हुआ

    भारतीय का आधुनिक पेय

    कितना मनोहारी लगता है पहली नज़र में

    जैसे हरी चुनरी ओढ़े प्रेयसी हरितवर्णी चूड़ियाँ खनखना रही हो

    सावन के दिनों में भी वसंती-राग अलापती हुई

    इन बगानों के बीच में खड़े शिरीष के पेड़ 

    किसी आदिम प्रेमी से कम नहीं लगते, 

    उनके तनों से लिपटी काली मिर्च की लताएँ तो 

    जैसे युगल नृत्य में झूल रही हों

    जैसे थिरकती हैं बिहू पर्व पर अपनी अल्हड़ता में असमी युवतियाँ

    अंग्रेज़ों के ज़माने के लगाए इन चाय बगानों के

    हरापन में झाँकने पर अवसर हाँ 

    मिल जाते हैं स्याह रंग के धब्बे

    डेढ़ सौ सालों से बसाए चाय पत्तियों तोड़ने लाए गए

    बंगाली, उड़ियाई, बिहारियों की दर्द गाथाएँ

    असमियाँ स्त्रियों के मर्मांतक दुख

    स्थानीय निवासियों की अपनी भूमि से बेदखली

    हरियल पातों में छुपे 

    सुग्गा साँप-सा डंसने को 

    आतुर बगान मालिकों के कारनामे

    कितना कुछ रहस्य छिपा है

    असम के चाय बगानों में

    जो छलकता है उनके दर्दभेदी गीतों में

    तीन पत्तियाँ चुनते हुए, गुनगुनाते हुए ब्रह्मपुत्र घाटी की ओर से आती आर्द्र हवाओं के साथ

    मानों शिरीष पेड़ों के सहारे समय के आकाश से

    उतरा घना अँधेरा छा गया हो

    लोक पर्वों पर ठुमकती हुई 

    असमिया बालाओं के जीवन में!

    स्रोत :
    • रचनाकार : लक्ष्मीकांत मुकुल
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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