अपशब्द प्रेम
apshabd prem
एक
प्रेम संगीत की तरह
मेरे दिमाग़ में था
तुम तो वाद्य थे।
दो
पानी का स्वभाव है बहना
रोकना चट्टान का
बहने से रोकने पर भी
रिस जाता है दरारों से
ज़मीन सोख लेती है
भाप बनकर उड़ जाता है
रुका हुआ पानी
चट्टान थमी रहती है
दर्ज़ करती हुई इतिहास।
तीन
अपनी तस्वीर भी
बाज़ दफ़ा और की लगती है
एक युवा स्त्री
जो कैसे इठला कर खड़ी है
महबूब से लगकर
सौतिया डाह से सुलग जाता है शरीर
मैं रख देती हूँ उसके ऊपर
एक बूढ़े जोड़े का चित्र
जो बिल्क़ुल हमारी तरह लगता है
सच में, हू-ब-हू।
चार
मेरा प्रेम
कृष्ण वर्ण है
विवर की तरह
गहरा और डरावना
पतनशील इसमें गिरते रहते हैं लगातार
एक नष्ट नीड़ का पता मिलता रहता है बदहवास लिखावट में
मुझे याद न करना नामुमकिन है
अपशब्दों में आती रहूँगी बार-बार
तुम्हारे स्वप्नों में
जिसे तुम सुनाते समय दु:स्वप्न कहोगे
और मिथ्या तुम्हारे चेहरे पर पुत जाएगी कालिमा
प्रेम के अखंड पाठ में मेरा ज़िक्र आएगा
संपुट की तरह।
पाँच
निष्ठा सिर्फ़ एक जगह पहुँचाती है हमेशा
उसकी गति लयबद्ध होकर सुला देती है लोरी की तरह
आश्वस्ति धूल की तरह जम जाती है
कभी के चमकीले शीशे पर
आदत के बाहर ही रहता है प्रेम
अटपटा और आतुर
जैसे नई भाषा का पहला अक्षर।
- रचनाकार : अजंता देव
- प्रकाशन : सबद वेब पत्रिका
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