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अपने पोते की दूसरी वर्षगाँठ पर एक प्रार्थना

apne pote ki dusri warshaganth par ek pararthna

अशोक वाजपेयी

अशोक वाजपेयी

अपने पोते की दूसरी वर्षगाँठ पर एक प्रार्थना

अशोक वाजपेयी

और अधिकअशोक वाजपेयी

    साठ बरस का हो जाने के बावजूद

    मुझे एक भी पूरी प्रार्थना याद नहीं है :

    अपने पिता को मैंने प्रार्थना करते कभी नहीं देखा था,

    मेरी माँ ने मुझे कोई प्रार्थना नहीं सिखाई।

    मैंने बहुत कुछ गँवा दिया है

    पर प्रार्थना नहीं,

    क्योंकि कोई भी पूरी कभी मेरे हिस्से में नहीं आई।

    तुम एक तुतलाता हुआ वाक्य हो

    जिसके इर्द-गिर्द मैं एक प्रार्थना बुनना चाहता हूँ :

    मैं उसमें गर्माती धूप, हरी पत्तियों का भय,

    पक्षियों का अथक उत्साह,

    खिलौनों की दिव्य आभा,

    बरतनों में अन्न की आहट,

    सपनों से भारी नींद,

    आकाश में दिग्भ्रमित नक्षत्रों,

    साथ देने वाले हाथों, दिलासा देने वाली आँखों

    और थकने-हारने वाले पाँवों को गूँथ देना चाहता हूँ।

    मैं तुम्हारे लिए अभय की नहीं अदम्य की कामना करता हूँ,

    मैं नहीं चाहता कि तुम्हें कुछ उपहार या वरदान की तरह मिले।

    मैं जानता हूँ कि तुम्हारे बड़े होने पर यह संसार

    लगभग वैसा ही गड्डमड्ड और झिलमिल होगा

    जैसा कि बुढ़ाते समय मेरे लिए है :

    मैं तुम्हें अँधेरे से लड़ने के लिए कोई मशाल दे सकता हूँ,

    उसे टोहने के लिए कोई लाठी।

    मैं इतना भर चाह सकता हूँ कि

    देर-सबेर तुम अपनी आग पा लो जिसमें लपक और रौशनी हो

    और जिसे लड़-भिड़कर अंत तक किसी तरह बचाए रख सको।

    सपने और सच में अंतर करना मेरे लिए हमेशा कठिन रहा है,

    शायद यह भेद तुम ज़िंदगी में जल्दी कर पाओ—

    पर चाहता मैं यही हूँ कि

    शुरू को आख़िर तक ले जाने वाली डोर

    सपने की ही हो, भले सच से बिंधी हुई :

    हम सपने के परिवार के हैं, सच की बिरादरी के नहीं।

    यह मेरी उलझन नहीं ज़िम्मेदारी है कि

    विरासत में मैं तुम्हें देवता नहीं पूर्वज सौंपूँ :

    मैं तुम्हें बताऊँ कि अंतत: हम हारते रहे हैं

    पर बिना झुके या पछताए;

    कि हम दूसरों के कृतज्ञ होते हुए भी

    अपनी डगर पर चलते रहे हैं;

    कि हम ज़रूरत के वक़्त काम आए हैं

    भले हमें बाद में याद नहीं किया जाता रहा।

    हमारा समय तुम्हारे से बेहतर या बदतर नहीं ठहरेगा :

    वह भी अँटा पड़ा है

    प्रेम से, कामना और पिपासा से,

    अन्याय और क्रोध से, घृणा और बेचैनी से,

    पर उसी में चमकते सवेरे रहे हैं और उदास आश्वासन,

    लंबी कटने वाली रातें, अनाम चिड़ियाँ

    भरोसे के शब्द, समयातीत तक पहुँचने वाले क्षण,

    अंत तक सक्रिय बूढ़े, फिसल-उलट जाते विन्यास,

    उम्मीद के स्थापत्य, लपकती आकांक्षाएँ,

    मटमैले पर अमिट सच भी।

    उनमें से उत्तराधिकार में तुम क्या लेना चाहोगे यह तुम पर है

    लेकिन हम रहेंगे तुम्हारे आस-पास अदृश्य समय की तरह,

    स्वस्ति की तरह,

    जो शायद तुम्हें किसी भी हालत में निष्प्रभ होने से बचा सकें।

    मेरे पोते,

    तुम तो ईश्वर की तरह निश्छल,

    ब्रह्मांड की तरह अप्रत्याशित,

    सूर्य की तरह नवजात,

    अग्नि की तरह पवित्र,

    पृथ्वी की तरह पुरातन हो

    मैं तुम्हें इन शब्दों से प्रणाम करता हूँ

    और उम्मीद करता हूँ

    कि यही शब्द प्रार्थना की इबारत होंगे।

    स्रोत :
    • रचनाकार : अशोक वाजपेयी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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