अपेक्षा
apeksha
एक शब्द अपेक्षा करता है कि उसकी तमाम निर्बलता
और असहायता के बावजूद
उसे उसके आंतरिक अर्थ में समझ लिया जाएगा
जैसे एक वाक्य अपेक्षा करता है अपने शब्दों से
कि वे उसके अपने हैं और उसे शर्मिंदा न होने देंगे
जब कोई किसी को पुकारता है
या नहीं पुकारता है
तो इसमें भी एक अपेक्षा ही छिपी होती है
जब टीस रेत की तरह उड़ कर भर रही होती है आत्मा में
तब भी भीतर कहीं कुछ होता है
जो अपेक्षा करता है सूर्य से, हवा से, रात के अँधेरे से
और अपनी ही किसी अनैच्छिक मांसपेशी से
मैं हर सुबह एक फूल से अपेक्षा करता हूँ
फूल ने अपेक्षा की है अपनी पंखुरियों के रंगों से
एक स्त्री दिन के उजाड़ से निकलने के बाद
खिड़की से दिख रहे एक अनाम तारे से अपेक्षा करती है
और फिर अपने भीतर बैठे हुए दुःख से ही
उसे एक तस्वीर की याद आती है जिसमें
एक सम्राज्ञी अपेक्षा करते-करते
तब्दील हो जाती है साधारण स्त्री में
कभी-कभी एक सुख अपेक्षा करता है दुःख से भी
और दाँव पर लगा देता है अपना सब कुछ
आज का यह दिन, अगले दिन से अपेक्षा करता हुआ
धीरे-से और चुपचाप बीत जाता है
अपेक्षाओं से दुःख बनता है
दुःखों से भी बनता है यह समाज
जिसमें जीवित रहा आता हूँ मैं अनादि काल से।
- रचनाकार : कुमार अम्बुज
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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