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आपबीती

apabiti

जब ज़िंदगी के क़दमों की आहट पास गई

लगा अब आमना-सामना हुआ

उसने हाथ पैर झटके

उँगलियाँ बाहर निकल आईं

सिर इधर-उधर घुमाया

नाक-कान उभर आए

लैस होकर निकला

तो कोई कहीं कहीं था

हाँ, बे-सिर पैर की बहती हवा थी

जो मज़े से इन सबसे टकरा

एक और बाजा बजाने लगी। अब—

उँगलियाँ हैं कि भीतर जाती नहीं

कान बंद होने का नाम नहीं लेते

नाक है कि उठती ही जा रही है!

स्रोत :
  • पुस्तक : नंगे पैर (पृष्ठ 4)
  • रचनाकार : विपिन कुमार अग्रवाल
  • प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
  • संस्करण : 1970

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