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अंतर्मुखी

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कुंदुर्ति आंजनेयलू

और अधिककुंदुर्ति आंजनेयलू

    सर पर लदे भार को मुश्किल से ढोता चलता

    कंठकर्तरी सदृश काल को किसी तरह धीरे-धीरे खिसकाता

    छोड़ते हर निश्वास में वेदना-शकलों को बिखेरता

    अद्यंत रहित इस यात्रा से

    हृदय में छाई थकान लेकर

    विश्वसित हर साँस के साथ नाक को दूर सरकते देखता

    आए हर नए परिवर्तन में अनमिले को तरसता

    बहता, हर मलयानिल की आँखों में धूल की डालते सहनता

    जन्मांध घोषित करने वाले इस लोक की बुनती कहानियों को गुनता

    दृष्टियों को पद-सीमाओं में ही लगन कर

    दीन भावना ले खड़े रह जाता हूँ मैं—

    क्या सूझता है मन को, कौन ढकेलता है मन को?

    एक ही वस्तु के चयन का संकेत पाकर

    समस्त हारे छिने पृथ्वीपति की

    व्यक्त मात्र सिंहासन की माँग-सी

    जीवन में बंदी बन बैठा मैं

    परम शांति चाहता हूँ

    शांति सिहासन पर बैठ

    कांति चक्रों के केंद्र बिंदुओं को देख

    अपने में छिपी धीमी रेखाओं को चारों ओर फैलते देख

    महाशून्य इस गगन में इतने बड़े सूरज को देख

    अदृश्य वायु में घनीभूत प्राण शक्ति को देख

    शीतल अनंत सागर में छिपे बड़वाग्नि को देख

    छूने मात्र से जला देने वाली अग्नि में व्याप्त चैतन्य को देख

    भूतल पर उगते हर तिनके को बुला कर बात कर

    करोड़ों तिनकों से बुनी उस हरी दरी को देख

    स्रोतस्विनी की आदि में जन्म लेकर

    जलति की ओर अग्रसर हो कर

    इठलाता चलता अकेले उस बुद्बुद् को देख

    इस अनंत काल-गति में अपने समान

    कोई नहीं

    निगल चलूँगा इस वसुधा को

    समझने वाले शतायु इस मानव को देख

    अंदर मचलती मुसकान में दया को बटोरता हुआ

    आशा-निराशाओं के बीच पड़ कर तैरना सीखता हुआ

    दृष्टियों को पद-सीमाओं में ही लगन कर

    दीन भावना ले खड़े रह जाता हूँ मैं

    क्या सूझता है मन को, कौन ढकेलता है जन को?

    चारों ओर चढ़ आए शत्रुओं को समीप बंधु भावित कर

    क़िले के फ़ाटक खोल दीवारों के पहरे रद्द कर

    काम का सर कटवा कर क्रोध का गला घोंट

    लोभ को छह फुट गहरे में दफ़ना कर

    मोह के बाल पकड़ मँझधार में डुबो कर

    मद-मात्सर्यों को बढ़ाने वाले

    निघंटुओं के पृष्ठों को फाड़ कर

    मैं 'मैं' सा दिखने का

    मन में निश्चय लेकर

    भरे लहलहाते खेत-सा दिखने के लिए

    सब को बासमती खिलाने के लिए

    साहित्य सरस्वती की जिह्वा पर

    शहद-सा दिखने का

    लोक को अपूर्व गीत सुनाने का

    मन में हौसला बढ़ा कर

    दृष्टियों को पद सीमाओं में ही लगन कर

    दोन भावना ले खड़े रह जाता हूँ...।

    स्रोत :
    • पुस्तक : शब्द से शताब्दी तक (पृष्ठ 73)
    • संपादक : माधवराव
    • रचनाकार : कुंदुर्ति आंजनेयलू
    • प्रकाशन : आंध्र प्रदेश हिंदी अकादमी
    • संस्करण : 1985

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