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अनसूयता

ansuyta

अनुवाद : एम. जी. वेंकटकृष्णन

तिरुवल्लुवर

तिरुवल्लुवर

अनसूयता

तिरुवल्लुवर

161

जलन-रहित निज मन रहे ऐसी उत्तम बान।

अपनावें हर एक नर, धर्म आचरण मान॥

162

सबसे ऐसा भाव हो, जो है ईर्ष्या-मुक्त।

तो उसके सम है नहीं, भाग्य श्रेष्ठता युक्त॥

163

धर्म-अर्थ के लाभ की, जिसकी हैं नहीं चाह।

पर-समृद्धि से ख़ुश हो, करता है वह डाह॥

164

पाप-कर्म से हानियाँ, जो होती है जान।

ईर्ष्यावश करते नहीं, पाप-कर्म धीमान॥

165

शत्रु भी हो ईर्ष्यु का, करने को कुछ हानि।

जलन मात्र पर्याप्त है, करने को अति हानि॥

166

दान देख कर जो जले, उसे सहित परिवार।

रोटी कपड़े को तरस, मिटते लगे बार॥

167

जलने वाले से स्वयं, जल कर रमा अदीन।

अपनी ज्येष्ठा के उसे , करती वही अधीन॥

168

ईर्ष्या जो है पापिनी, करके श्री का नाश।

नरक-अग्नि में झोंक कर, करती सत्यानाश॥

169

जब होती ईर्ष्यालु की, धन की वृद्धि अपार।

तथा हानि भी साधु की, तो करना सुविचार॥

170

सुख-समृद्धि उनकी नहीं, जो हों ईर्ष्यायुक्त।

सुख-समृद्धि की इति नहीं, जो हों ईर्ष्यामुक्त॥

स्रोत :
  • पुस्तक : तिरुक्कुरल : भाग 1 - धर्म-कांड
  • रचनाकार : तिरुवल्लुवर

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