जब शहर में आग की लपटें मोटे परतदार पुलों को पिघला डालेंगी
जब काले धुएँ की ग़ुबार में शेष रंग तितर-बितर हो जाएँगे।
जब हिंसक नक़ाबपोशों के गिरोह सड़कों पर लहू बहाएँगे...
...तब भारी तादाद में
वाहनों से लबालब भरी सड़कों को
अपनी मस्त लयबद्ध उड़ानों से
तोरण द्वारों की तरह सज़ा संवार देने वाले
कबूतरों के झुँड क्या करेंगे?
जब किसी गुप्तचर से
दरिंदों को ज्ञात होगा—
भारी संख्या में सड़कों पर गोते लगाते
अंसल की मादक गलियों रोशनियों के शौक़ीन
शाम को संगीत की अल्हड़ ऊर्जावान धुनों पर नर्तन करने वाले
कबूतरों ने बड़ी चतुराई कुशल आयोजन से
आँखों में प्रेम के आँसू की तरह
अपने सात घेरों के बीच सफ़ेद कबूतर को छुपा रखा है...
तब कठोर चेहरे जनरल डायर में तब्दील होते-होते
तमाम संग्रहित अस्त्र-शस्त्र दाग़
इनकी गति को अकड़ को
सर उठाकर बहस कर लेने के विश्वास को
महबूबा को फूल भेंट करने,
—‘ये धरती जितनी तुम्हारी उतनी हमारी भी है
हवा पानी आकाश धूप...
...हम भी प्रेमियों के जोड़ों की मानिंद
अंसल की सीढ़ियों पर बैठते हैं’—
इतना कहने की गुस्ताख़ी पर
धराशाई कर दिए जाएँगे।
...तब उनके निशाने पर होंगे
सड़क का वो उभार
पुल की वो गहराई
जहाँ कबूतर उड़ाने भरते हैं,
कालिख के ढेर में तब्दील हो जाएगी वो जगह
जहाँ कुछ इंसान दाना-पानी डाल आते हैं...
सिर्फ़ ये सबूत है उनके पास—
दशकों से वे वहाँ रहते आए हैं...
वहाँ की हवा को फ़िज़ा को
धूप की गर्माहट को
चाँद की शीतलता को पहिचानते आए हैं...
इसी शहर के बाशिंदों ने उन्हें दाना पानी दिया है...
…मगर वे काग़ज़ नहीं दिखा पाएँगे
अदालत में गुटरगूँ समझ कर वर्णित करना
किसी भाषा वैज्ञानिक, माननीय जज साहेब
वकील के लिए नामुमकिन होगा...
...क्या उनके लिए कारागार होगा या फिर
एक बार, सिर्फ़ एक बार का कत्लेआम...
सिर्फ़ एक बार तबाही के मंज़र
मलबों के ढेर, जली हुई ईंटें, अधजले पेड़
नुची अधजली धरती...और
सिर्फ़ और सिर्फ़ शव...
- रचनाकार : मनोज मल्हार
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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