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अमुक दिन जाना है

amuk din jana hai

नवल शुक्ल

नवल शुक्ल

अमुक दिन जाना है

नवल शुक्ल

और अधिकनवल शुक्ल

    एक दिन अपने शहर आऊँगा

    देखूँगा दिन, दो-चार दिन

    लोगों से बातें करता, जो कभी-कभी मिलेंगे

    मित्रों को ढूँढ़ता, जो कहीं से रहे हैं

    वे कहीं जाते हुए मिलेंगे।

    उन्हें बताऊँगा कि अमुक दिन आया

    अमुक दिन जाना है

    वे आश्चर्य करेंगे

    अरे! इतनी जल्दी!

    क्या अपने शहर में मन नहीं लगता?

    आओ, पान खाएँ, फिर चले जाएँगे।

    एक समय ऐसा आएगा

    जब भीतर से उठेगी आवाज़

    क्या यह तुम्हारा शहर है?

    कहाँ हैं तुम्हारे प्रिय लोग?

    मैं उदास हो जाऊँगा।

    बगल से गुज़रता कोई सायकल स्कूटर वाला

    भद्दे ढंग से कहेगा

    अबे, हट बे... देखकर चल

    उसे अवाक् देखूँगा।

    अचानक मिलेगा एक भूला-बिसरा चेहरा

    जोशो-ख़रोश से करेगा नमस्कार

    शायद होगा यह बेरोज़गार

    उसके चेहरे पर

    महाविद्यालय के दिनों की चमक होगी

    जिसे रोकता खड़ा होगा उसका कड़ा चेहरा

    वह मेरे भूले-बिसरे दिनों की बातें करेगा

    जिस समय के लिए यहाँ आता हूँ बार-बार।

    उसकी बातें, मेरे पुराने समय की याद दिलाएँगी

    जैसे कोई पिछड़े आदिवासी ज़िले का आदमी

    सुनाता है अपनी जवानी की शिकार-कथा

    और उसके दूर-दूर तक जंगल नहीं होता।

    अन्यमनस्क होऊँगा इतना

    इतनी उदासी और करुणा

    कि चल दूँगा अपने शहर से वापस

    कि पुराने समय के लिए अब नहीं आऊँगा

    और बहुत दिन हो जाएँगे

    तो धीरे-धीरे इतनी बढ़ेगी कुलबुलाहट

    कि पर्व-त्यौहारों के बहाने ही

    फिर से यहाँ आऊँगा।

    स्रोत :
    • पुस्तक : दसों दिशाओं में (पृष्ठ 51)
    • रचनाकार : नवल शुक्ल
    • प्रकाशन : आधार प्रकाशन
    • संस्करण : 1992

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