माता पिता के संरक्षण से ऊब गया ज्यों विहग कुमार।
नीड त्याग नभ मैं उडने को पर पड़काता बारंबार॥
इच्छाओं के प्रबल झोंक में अनिलधारक से कूद हठात।
नव डैनों के डाँट चलाता तिरता जाता हो दिनरात॥
वैसे ही अंबुजि कुमार यह घन, स्वतंत्र, इच्छाचारी,
जनक ताडना अवहेलन कर, भाग भाग कर रव मारी,
विद्युत के विमान पर बैठे, मन मारुत की कर पतवार।
द्विजगण की टाली से हाड लगाते करते हुए विहार॥
विविध देश प्रांतर भूखंडों पर होते करते कौतुक,
किसी शेल-कन्या अंतःपुर में घुस जाते लुक लुक॥
राह रोकने कभी पथिक की, जो पत्नी के मिलने हित
द्रतगित से निज सदन जा रहा है विभोर हो चिंतित-चित
राह निरख है रही प्रिया ऊँचे से झाँक झरोके से।
पट खटकाकर प्रिय आगमन बताकर उसको धोके से॥
मिलन उमग भंग कर डाला, द्वारा खोल जब हुई हताशा।
तब उसकी ब्याकुलता पर होकर प्रसन्न कर अट्टहास॥
बढ़ते बढ़ते चढ़ते चढ़ते किसी शैल से टकराए।
कभी कभी कानन में खोकर रो रोकर बाहर आए॥
ग्राम नगर उपवन गिरे कानन का लेता आनंद महान।
हिमगिरि के प्रदेश में जा पहुँचा स्वतंत्र मेघों का यान॥
बाल-सुलभ उच्छृंखलता में चलने को तो निकल पड़े।
पर जब घर की सुंध आई तो बच्चे व्याकुल हुए बड़े॥
आगे बढ़ने लगे, हिमाचल ने ऊँची निज भुजा पसार।
कहा डॉट कर, रुको जगर आगे बढ़ने का किया विचार॥
तो मैं शात दंड से सारी गर्मी ठंडी कर दूँगा।
कर पाषण जमा कर सब के उडत पख करत दूँगा॥
गति रुक गई नहीं कुछ अगा पीछा उनको दीख पडा।
घर था दूर शिथिल अँग उनका बादल दल रहा गया खड़ा॥
हिमगिरि की फिर देखा सबने श्वेत केश वह महा कठोर।
शीत दंड ताने सक्रोघ ही देख रहा था उनकी ओर॥
घेर अधिक रख सके नहीं वे सिसक सिसक कर फुट पड़े।
आसूँ आँसू हो बेचारे व्योम नयन से टूट पड़े॥
माता सरिता धीरज दे दे बुला बुला कर अपने पास।
उनके पिता गेह तक पहुँचाने का है कर रही प्रयास॥
- पुस्तक : कवि भारती (पृष्ठ 174)
- रचनाकार : गुरुभक्तसिंह
- प्रकाशन : साहित्य प्रेस
- संस्करण : 1953
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