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आख़िरी स्त्री

akhiri istri

अहर्निश सागर

अहर्निश सागर

आख़िरी स्त्री

अहर्निश सागर

और अधिकअहर्निश सागर

    एक स्वप्न में पुल पार करता हूँ

    दो क़दम आगे चलता हूँ

    पुल पीछे दो क़दम ढह जाता है

    पुल पार होते ही

    पूरा नदी में ढह जाता है

    एक उम्र में जब स्त्रियों को देखता हूँ

    तो लगता है

    स्त्रियाँ कभी बूढ़ी नहीं होतीं

    वे पुल बन जाती हैं

    हम उन्हें पार करते हैं

    और वे समय की नदी में ढह जाती हैं

    बच्चे बग़ीचों में झूलों पर झूलते हैं

    सहसा कहीं से पिता की आवाज़ सुनाई पड़ती है

    वे दौड़कर पिता के पास चले जाते हैं

    ख़ाली झूला बग़ीचे के एकांत में झूलता रहता है

    घर की बुज़ुर्ग स्त्री

    घर के एक कोने में माला जपते हुए

    आगे-पीछे झूल रही है

    कहीं से पिता की आवाज़ आई होगी

    कुछ था जो दौड़ता हुआ

    पिता के पास चला गया

    और उस स्त्री की देह

    संसार के बग़ीचे में झूलती हुई छूट गई

    झूले भी हवा में बना पुल होते हैं

    जो नीरवता के दो अज्ञात किनारों को छूते हैं

    जब वे ठहर जाते हैं

    वे ढह जाते हैं

    आख़िरी स्त्री जो हमारा पुल बनती हैं

    पार करने की उकताहट से भर चुका मैं

    उसे पार नहीं करूँगा

    उसके साथ ढह जाऊँगा।

    स्रोत :
    • रचनाकार : अहर्निश सागर
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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