मेरे मन में
आकाश का ज़ख़्म उभर आया है;
जिसे मैं मत्स्यावतार से
चाटता आया हूँ, युगों-युगों से,
दिशाओं की जिह्वा से।
मेरे इस ज़ख़्म की परिधि में—
कलंकी का अश्व भटक रहा है
विद्रोह की बिखरी अयाल फैलाए;
मेरे इस ज़ख़्म के आँगन में—
दामन की छोटी तुलसी
बलि के माथे पर
तीसरा चरण धर के खड़ी है;
मेरे इस ज़ख़्म की झील में—
वेदना ने धारण किया है
राधा का रूप
और कृष्ण की बाँसुरी
जमुना-तीरे
व्यथा की पंचम तान छेड़ती है।
मेरा यह ज़ख़्म
रिसता है, लोकता है
जयद्रथ के विश्वासघात से;
मेरा यह ज़ख़्म जलता है
रोता है सिसकता है,
पांचालों के अपौरुष से,
मेरा यह ज़ख़्म सड़ता है
मेरे ज़ख़्म के वृक्ष तले—
रजस्वला द्रुपदसुता बैठी है
दुःशासन के नाम का कुंकुम लगा के।
बृहन्नला सीखता है
नृत्य के पाठ;
और बल्लव बने हुए महाबलि भीम
कीचक के रसोई घर में
चावलों में के कंकड़ बीनते हैं।
मेरे मन के ज़ख़्म में
अमावस का कलश उलटा पड़ा है;
और कराहता हुआ दुर्योधन
उसके किनारे पर बैठा
शरबिंद्ध भीष्म को
उत्तरायण का मांस दिखाता है;
मेरे मन के ज़ख़्म में—
कर्ण के रथ का पहिया
चीखता है,
सुई की नोंक बराबर मिट्टी के नीचे
पागल द्रोण चीत्कार करते हैं;
“नरो वा कुंजरो वा”
“नरो वा कुंजरो वा”
मेरे मन का ज़ख़्म सुलग चुका है
पागल बन चुका है
उसके उर में बैठा हुआ घटोत्कच
खाता है आसमान;
उसके चक्र में
राह भूला हुआ अभिमन्यु
खोजता है उत्तरा का गर्भ;
उसके मोड़ पर
पेट पकड़ के अश्वत्थामा बचा है;
उसकी चौहद्दी में
नरक की राह पर
शकुनी की चौपड़ के पाँसे सहलाते हुए
जुआरी पांडवों का झुंड जा रहा है;
भीतर ही भीतर
उसे सिर्फ यही संतोष है,
यही हलकापन है
कि युधिष्ठिर का वफ़ादार कुत्ता
पीछे-पीछे आ रहा है;
और नरम गीली जीभ से
मेरे ज़ख़्म को चाट रहा है,
मात्र उतना ही सुख है
मेरे ज़ख़्म को
उतनी ही देर भला लगता है!
मेरे मन में
आकाश का ज़ख्म उभर आया है।
- पुस्तक : प्रतिनिधि संकलन कविता मराठी (पृष्ठ 223)
- रचनाकार : सदानंद रेगे
- प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
- संस्करण : 1965
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