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अनिल त्रिपाठी

और अधिकअनिल त्रिपाठी

    कहो कैसे हो आजकल

    क्यों रीत गया है तुम्हारा आभ्यांतर

    सावन की हरीतिमा में भी

    क्यों नहीं नाचता

    तुम्हारे भीतर का मोर

    आख़िर कैसा है यह सर्पदंश

    जो तुम्हारे देह-विवर के भीतर

    छोड़ गया है क्लेश का विष

    और निचोड़ ली है

    तुम्हारे भीतर की उत्तप्त ऊर्जा

    क्यों नहीं बज रहा है

    काल के सम पर छंद का राग

    जबकि सूने दिनों में भी

    दिए की टिमटिमाती रोशनी की तरह

    तुम्हें आलोकित करता था कभी

    नए दिन की नई सुबह में भी

    क्यों लगता है सब कुछ बासी

    सब कुछ त्याज्य

    जैसे कि समय की काया पर

    ‘कै’ की छाप हो।

    स्रोत :
    • पुस्तक : समकालीन सृजन : कविता इस समय (पृष्ठ 345)
    • संपादक : मानिक बच्छावत
    • रचनाकार : अनिल त्रिपाठी
    • संस्करण : 2006

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