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आगगाड़ी आ रही है

aggaDi aa rahi hai

अनुवाद : रत्नमयी देवी दीक्षित

ओ. एम. अनुजन

ओ. एम. अनुजन

आगगाड़ी आ रही है

ओ. एम. अनुजन

एक

आगगाड़ी दौड़ती रही है। उसका आरव प्रतिध्वनित

होकर सुनाई दे रहा है दिगंतर-भित्तियों में।

आओ, वर की प्रतीक्षा में निरत नववधू के जैसा

शिर झुकाए खड़ा है सिग्नल।

शाला में ज्ञान-धान की पोची बाले

चुगकर लौटने वाली मेरी नन्ही शुकी, आओ!

हमें न्योता दे रही है यह सुहावनी ऋतु

माकंद-मजरी के सौरभ्य से परिपूर्ण मंद पवन के द्वारा।

संध्या समय में तुमको खोजते हुए रोने वाले

तुम्हारे माता-पिता और बंधुजन

आज जान ले, गृह-पंजरांतर

बंधनातीत हृदय-पंखों की फड़फड़ाहट!

सब छोड़कर तुम जाओ! तुम्हारा जन्मगृह

और तुम्हारे प्रिय माता-पिता

इस पुष्प-माल्य के लोह से भी दृढ़

बंधन को आज आकर ज़रा तोड़े तो!

दो

बिना कुछ बोले तुम हिचकियाँ बाँधकर क्यों रो रही हो? तुम्हारे

ये आँसू मैं रूमाल से पोछ लूँ।

पुस्तकों को फाड़कर फेंक दो, मेरी सखी!

नया-नया ज्ञान प्राप्त करने की इच्छुक हो तुम?

हमें अपने जीवन-लक्ष्य पर पहुँचाने के लिए

धुआँ गाड़ी यहाँ पहुँचने ही वाली है।

नागरिक समूह बिलबिलाते इस पनाले में

हम एक क्षण भी रुक नहीं सकते।

घोर अपवाद से विद्ध होकर उग्रता से तड़पने वाले

हृदय के रक्त का आस्वादन करने के लिए

जलते हुए व्रणों में विषलिप्त

रसनाओं को डुबाने वाले हैं ये सब!

प्यासे भाव से देखने वाली इनकी दृष्टि

चरित्रदाहक आग्नेयास्त्र है।

प्यासे भाव से देखने वाली इनकी दृष्टि

तुम्हारी आत्मा में फड़फड़ाने वाली सुंदर शारिका का

यह निषाद जाति हनन कर डाले उसके पहले ही

जाओ, मेरी सखी! तुम सुनती नहीं हो—

दूर से आने वाली गाड़ी की सीटी?

तीन

हमने जिन गृहों में जन्म लिया वे

हमें बाँध रखने वाले कारागृह बन गए।

ज्ञान खोजते हुए हम जिस शाला में पहुँचे

वह तोतों के पढ़ने का पिंजरा बन गई।

ये सब मोहन स्वातंत्र्य-पक्षों को

स्नेहरूपी लूतातंतु से बाँध नहीं रहे हैं?

हमारी यह जीवन-सीमा भी

काल-देशादि उच्च प्राकारों से दुस्तर है।

इन उत्तंग भित्तियों को भी लाँघकर ऊँचे उड़े

प्रकाश के लिए तरसने वाले हमारे ये पंख।

अन्यथा, इस चर्मबद्ध वक्षोस्थि को भी

तोड़-फोड़कर उड़ जाएँगे हमारे मन!

यह हो! भविष्य जैसी यह आगगाड़ी रही है—

गाती हुई, झूमती हुई, नाचती हुई, डोलती हुई।

चार

चलो चलें आगगाड़ी में बैठकर, पीछे छोड़कर—

भूतकाल की इन तिक्त स्मृतियों को।

अपने घर, रथ्याओं, सायं-सम्मेलनों के

उत्सवों से रम्य क्लब आदि को,

विष घोली हुई मदिरा के समान, हम

दूर छोड़कर आगे चले चलें।

हिंदी गाने तमिल स्वर में गाने वाले

अंधे याचकों से लेकर मुख्यमंत्री तक सभी का

स्वागत कर रही है यह आगगाड़ी—यात्रियों के

जाति-वर्ग आदि भेदों की गणना किए बिना ही।

हम कल पहुँच जाएँगे वैरुध्यों को मिलाने वाली

उस निम्नोन्नत और दीर्घ दाम्पत्य—वीथी में।

मेरी भुज-शाखा में तुम्हारी पाणि-लता

लपेटकर हम जब आगे चलेंगे

तब तुम्हारे दीर्घ निःश्वासों को मैं चुंबनों से मिटाऊँगा,

तुम्हारे आँसुओं का मैं प्रतिशोध लूँगा।

सर्पदंश से तुम मार्ग में गिर जाओगी तो

अपनी अल्पायु का भी आधा मैं तुम्हें दे दूँगा।

गाड़ी पहुँचने पर भी इस प्रकार

हिचकियाँ बाँधकर तुम क्यों रो रही हो?

पाँच

दस मिनट के मिलन के बाद विरह के कारण

निकलने वाले दीर्घ निःश्वास के साथ

गाड़ी धीरे-धीरे आगे खिसकने लगी—गदगद

कंठ और कंपित चरणों से।

अंतरिक्ष के हृदय में विलीन हो गया, धूमिल

वायु और गाड़ी के हृत्स्पंदन का रव।

संध्या की पुष्पवाटिका में आकुल-हृदय होकर

रात्रि से विदा माँग रहा है दिन!

जाओ तुम, विद्युत्-दीपिका के साक्षित्व में

आघे विजन हुए इस पक्ष से।

हम अब वृथा क्यों भटकते फिरें

इस प्रेम-नगर की लंबी वीथी में

जो हो चुका सो हो चुका, अब तुम

सब भूलकर घर जाओ।

तुम्हारे इस सुकुमार कंधे पर काँपता हुआ हाथ रखकर

आज मैं अंतिम विदा ले लूँ

मेरी प्रियतमे! तुम सह लो, चपलता से

इस प्रेमांध के मारे हुए तीर की वेदना!

अकेले जाएगी मेरी ठंडी छाया

विरहोत्तप्त मरुभूमि से।

उस मरुवन की गोद में ही होगा मेरी

जीवनरूपी वन-निर्झरिणी का विश्राम।

स्रोत :
  • पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 629)
  • रचनाकार : ओ. एम. अनुजन
  • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी

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